गाँव के बच्चे

दूरदराज गाँव के बच्चे
अभ्यस्त हैं
अपनी भेड़-बकरियां चराने के
मुंह-अँधेरे
उठा देती है माँ
गाय-भेंसों का गोबर थापने के लिए
और चलता कर देती है
दिन चढ़ते ही कांकड़ में
प्याज और रोटी देकर
भेड़-बकरियों के साथ......
खुले आकाश के नीचे
काँटों की बाड़ में
चल रही प्राथमिक पाठशाला के
पास से गुजरते हुए
वे झांकते हैं
पलभर को पाठशाला के भीतर, और
'दो दूनी चार' की रट में
रेवड़ से बिछुड़ गई
अपनी बकरी को बुलाने की
टेर मिलाते हुए
दौड़ जाते हैं उसकी ओर!
वे अभ्यस्त हैं
रोज ही पाठशाला को
अपने से पीछे छोड़ जाने के!
गाँव के बच्चे अभ्यस्त हैं
गाँव से दूर बनी
पक्की सड़क पर गुजरते हुए
वाहनों को देखने के
वे ले जाते हैं
अपने रेवड़ को
बेपरवाह होकर
सड़क के पार
कभी-कभी वाहन रुकता है
चिंघाड़ कर- चरमराता हुआ
और अभ्यस्त बच्चे
हांकते हुए भेड़-बकरियों को
चुपचाप निकल जाते हैं
ड्राईवर की फिट्टी गालियों का
नहीं होता कोई असर
गाँव के बच्चे अभ्यस्त हैं
रोज ही ड्राईवरओं की
भद्दी गलियां सुनने के!
गाँव के बच्चे ले आते हैं
साँझ के समय लौटते हुए
कांकड़ से चुनी हुई
झाड़ियों और लकड़ियों के गट्ठर
अपने सिर पर ढोकर
वे अभ्यस्त हैं
रोज ही
सिर पर
गट्ठर ढोने के!!!

टिप्पणियाँ

  1. वे अभ्यस्त हैं

    रोज ही

    सिर पर

    गट्ठर ढोने के!!!

    अभ्यस्त होना इनकी ही नहीं हम में से अधिकतर की आदत है और इसी के चलते सकारात्मक परिवर्तन की बात चौपालों तक सिमट कर रह जाती है

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