विवेकानंद के विचारों का सच


विवेकानंद जी ने अध्यात्म, धर्म, समाज आदि विषयों पर अपने मौलिक चिंतन से सबका ध्यान खींचा, पर जैसा कि हमारे यहाँ होता आया है, उनके वास्तविक विचारों को हाइजेक कर लिया गया. यह हमारी फितरत है.
पर वास्तव में विवेकानंद ऐसे नहीं थे जैसा उनको प्राय: दिखाया जाता है. वे भारत की जनता के प्रति बहुत संवेदनशील थे और आशावान भी. उन्होंने एक जगह लिखा है- भारत की एक मात्र आशा उसकी जनता है. उच्चतर वर्ग तो दैहिक और नैतिक रूप से मृतवत हो गए है..
विवेकानंद समाजवाद (कार्लमार्क्स के विचारों) से बहुत प्रभावित थे. उन्होंने स्पष्ट लिखा है- मैं एक समाजवादी हूँ. इसलिए नहीं कि वह एक सर्वगुण संपन्न सम्पूर्ण व्यवस्ता है बल्कि इसलिए कि रोटी के आभाव की अपेक्षा आधी रोटी बेहतर होती है. अन्य व्यवस्ताओं की परीक्षा की जा चुकी है और उसमे आभाव ही आभाव पाए गए हैं. अब इस की (समाजवाद की) भी परीक्षा कर ली जाये.
धर्म और ईश्वर से सम्बंधित उनकी मान्यताएं भी बहुत प्रगतिशील थीं. धर्म और ईश्वर के प्रति अविश्वास प्रकट करते हुए उन्होंने कहा है- मैं ऐसे धर्म या ईश्वर में विश्वास नहीं करता जो स्वर्ग में तो मुझे अनंत आनंद देगा पर इस जगत में मुझे रोटी भी नहीं दे सकता.
जिन लोगों ने उनको अपना एजेंट बना लिया है वे चाहे कितना दुष्प्रचार कर लें इस सच्चाई को अब नहीं छिपा पाएंगे कि जिस हिंदुत्व की वे बात करते हैं विवेकानंद जी का उससे कोई लेना देना ही नहीं था. जो व्यक्ति अठारहवीं सदी के अंत में धर्मान्तरण के लिए सत्ता और पुरोहित वर्ग के अमानुषी अत्याचार को जिम्मेदार ठहरता हो वह मनीषी इतने शुद्र और संकीर्ण हिंदुत्व का समर्थक कैसे हो सकता है? यह हमारा दुर्भाग्य है कि आज विवेकानंद पर सबसे बड़ा कब्ज़ा इन्हीं लोगों का है जो धर्मान्तरण के लिए खुद की गिरेबां में न झांक कर मुश्लिम और ईसाईयों को इसका जिम्मेदार मानते हैं.
ये लोग जिस महान हिंदू धर्म की दुहाई दे रहे हैं उसके कौन लोग धर्मान्तरण कर रहे हैं और ये लोग धर्मान्तरण करने को क्यों मजबूर हैं? वे कौनसे कारण हैं जिनकी वजह से ये लोग धर्मान्तरण कर रहे हैं? इसकी जड़ में कहीं आपका मनुवादी आतंक तो नहीं?
जिस मनुवादी सोच ने हिंदू समाज के जातिगत ढांचे को निर्मित किया है क्या उसने स्वयं धर्मान्तरण के लिए पर्याप्त स्पेस नहीं छोड़ दिया है? जिस तरह की अमानवीय क्रूरता, असमानता, असुरक्षा और शुद्र्ता मनुवादी सोच ने पैदा की है क्या वह स्वयं इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? जिस क्रूर जातिगत ढांचे में इस देश के बहुतायत को मंदिर में प्रवेश का अधिकार न हो, सड़क पर चलने का अधिकार न हो, कुए-तालाब से पानी भरने का अधिकार न हो, सामाजिक उत्सव मानाने का अधिकार न हो, विवाह में घोड़ी पर बैठने का अधिकार न हो, ब्राह्मणों और ठाकुरों के घरों से सामने से गुजरने का अधिकार न हो, वो क्यों न ऐसे घिनौने तथाकथित हिंदुत्व की निर्मम बैडीयां काट कर स्वाधीन हो जाये? जिनके संघर्ष, प्रतिरोध और हक को कुचलने के लिए उनकी बस्तियां की बस्तियां जलाई जाती हों, सामूहिक नरसंहार किये जाते हों और उनके आत्मबल को तोडने के लिए उनकी बहु-बेटियों को हवस का शिकार बना कर, डायन साबित करके नंगा करके गाँव में घुमा-घुमा कर मारा जाता हो, वो लोग क्यों न ऐसे घिनौने हिंदुत्व से मुक्त हों?
अपने जिन्दा रहने और समान रूप से विकास करने के मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करने का अधिकार सब को है, अगर जिन्दा रहने और समान रूप से विकास करने के मौलिक अधिकार का हनन कोई धर्म करता है तो कोई क्यों न ऐसे धर्म को ठोकर मारे?
ये जिस हिंदुत्व की महानता का बखान कर रहे हैं उसकी क्रूरता का आलम यह है कि आज भी न्यायलय के दलित न्यायाधीश के चेंबर को पवित्र करने के लिए गंगा जल से धुलवाया जाता है! जब दलित न्यायाधीश का यह हश्र है तो रिरीयाती-घिसटती आम दलित जनता का क्या होगा? अगर ऐसी क्रूरता से आतंकित होकर कोई अपना धर्म बदलता है तो इसके लिए विदेशी ईसाई या मुसलमान नहीं, ये तथाकतिथ हिंदू समाजसेवी जिम्मेदार हैं.
श्रद्धा किस हद तक अंधी हो जाती है यह धर्मान्तरण के लिए केवल ईसाईयों और मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराने से साबित हो जाता है. विवेकानंद जी ने उस वक्त बड़ी सच्चाई से इस बात को रखते हुए कहा- आइये, देखिये तो सही, त्रिवांकुर में जहाँ पुरोहितों के अत्याचार भारतवर्ष में सबसे अधिक हैं, जहां एक-एक अंगुल जमीन के मालिक ब्राह्मण हैं, वहाँ लगभग चौथाई जनसँख्या ईसाई हो गयी है.
उन्होंने एक और जगह लिखा है- भारत के गरीबों में इतने मुसलमान क्यों हैं? यह सब मिथ्या और बकवास है कि तलवार कि धार पर उन्होंने धर्म बदला. जमीदारों और पुरोहितों से अपना पिंड छुड़ाने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया, और फालत: आप देखेंगे कि बंगाल में जहाँ जमीदार अधिक है, वहाँ हिंदुओं से अधिक मुस्लमान किसान हैं.
तो इस चीज से विचलित होने की जरुरत नहीं है कि ये लोग क्या कर रहे हैं. जरुरत इस बात की है कि विवेकानंद के वास्तविक अवदान को जन सामान्य के सामने लाकर इन लोगों के झूठ को बेनकाब किया जाये.

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