महादेवी वर्मा की काव्यानुभूति का सच
महादेवी वर्मा को याद करते हुए.....
महादेवी वर्मा के जन्मशती वर्ष के शुभारम्भ पर आज हम
महादेवी वर्मा के समग्र साहित्यिक योगदान पर बात करने के लिए मिले हैं। मुझे 'महादेवी वर्मा की कविता’ पर आप लोगों के बीच अपनी अनुभूतियां बांटने का मौका दिया गया
है। महादेवी वर्मा पर बहुत लिखा गया है, बहुत शोध हुए हैं। महादेवी के समकीलन कवियों और आलोचकों
द्वारा भी उनके काव्य पर विचार हुआ है, आधुनिक और समकालीन आलोचकों में आचार्य नगेन्द्र,
डॉ. रामविलास शर्मा
और डॉ. नामवर सिहं जैसे शीर्ष आलोचकों ने भी उनकी कविता पर विचार किया है तो डॉ. रमेशकुंतल
मेघ जैसे मनोसौन्दर्यशास्त्री ने भी उनकी कविता की गंभीर पड़ताल की है।
महादेवी वर्मा को अत्यन्त महिमा-मण्डित करके या तो देवी
के उच्चतम स्थान पर बिठा दिया गया या अदम्य-अतृप्त वासना की शिकार कहकर उनकी गरिमा
को ठेस पहुंचाई गई। ये दोनों ही स्थितियां उनकी कविता की सही समझ के लिए घातक रहीं।
बहुत लम्बे समय से आलोचना-जगत महादेवी के अवदान की पुनव्र्याख्या करने से उदासीन रहा।
लगभग भुला देने वाली स्थिति! अब तक उनके लिए कुछ रूढ़ धारणाएं ही प्रयोग में ली जा
रहीं हैं कि वे दुखवादी हैं, कि वे पीड़ा, करुणा, वेदना और आंसू की कवयित्री हैं, कि वे मरण और रुदन की गायिका
हैं, कि उनका
काव्य जीवन की अस्वीकृति और नकार का काव्य है।
डॉ. रमेश कुंतल मेघ ने महादेवी वर्मा के काव्य को रहस्यवादी
और पारलौकिक नहीं माना, उनके प्रियमत को लोकोत्तर नहीं माना, इसके बावजूद उनका मत है कि- 'महादेवी का जीवन संयत और
मर्यादित था जो मनोसामाजिक दबाव झेल रहा था।’ लेकिन
आ. नगेन्द्र, आ. नन्ददुलारे वाजपेयी, डॉ. कुमार विमल जैसे चिन्तकों ने उन्हें विशृंखल और अतृप्त वासनाओं
की शिकार माना है। नगेन्द्रजी ने तो महादेवी वर्मा के आंसुओं को छायावादी फोड़ों का
मवाद तक कह दिया और बदले में रामविलास शर्मा ने उनके आंसुओं को करुणा के उजले आंसू
कहा।
कुलमिलाकर महादेवी वर्मा की छवि साहित्य में एक दुखवादी,
रहस्यवादी और अलौकिक
प्रियतम की प्रेयसी की बनी। इस छवि से किसी को इनकार भी नहीं हो सकता क्योंकि अब तक
के प्रकाशित शोधों में भी यही स्थापनाएं सामने आयी हैं। पर मेरी चिन्ताएं कुछ और हैं,
मैं बराबर यह सोचता
रहा हूं कि महादेवी वर्मा की कविताएं क्या वाकई जीवन की अस्वीकृति की कविताएं हैं?
क्या आसूं,
पीड़ा, वेदना या मिटने मात्र की
बात करने से कोई काव्य जीवन की अस्वीकृति का काव्य हो जाता है? क्या करुणा के आधिक्य मात्र
से ही कोई कविता जीवन से परामुख हो जाती है? क्या करुणा के कारण काव्य का सौन्दर्य
नष्टï हो जाता
है? यदि ऐसा
मान लिया जाए तो क्रौंच वध से उत्पन्न आदि कवि का करुणा-श्लोक क्यों आज भी भारतीय वाङ्गमय
का आदि छन्द माना जाता है? और फिर संस्कृत साहित्य की उस विराट परम्परा को कहां रखेंगे
जिसके प्रतिनिधि भवभूति ने मात्र करुण रस का परिपाक करते हुए केवल दुखान्त नाटक लिखे?
सौन्दर्य की सत्ता अत्यन्त व्यापक है। कलावादी रुझान
में सौन्दर्य को केवल इन्द्रियबोध तक सीमित कर दिया गया है जबकि सौन्दर्य प्रकृति,
मानव जीवन और ललित
कलाओं के आनन्ददायक गुण को कहा जाता है। महादेवी वर्मा भी जयशंकर प्रसाद की तरह प्रेम
और सौन्दर्य की कवि हैं। उनकी कविता में जो सौन्दर्य है वह वास्तव में आनन्द का ही
पर्याय है। अब प्रश्र यह उठ सकता है कि महादेवी में तो रुदन है, करुणा है, आंसू है और मरण की कामना
है तो उनका काव्य आनन्ददायक सौन्दर्य का पर्याय कैसे हो सकता है? इस प्रश्र के उत्तर में यह
कथन पर्याप्त है कि 'महादेवी के हृदय में सौन्दर्य, जीवन और प्रेम के लिए विह्वïल आकांक्षा है और यही आकांक्षा उनकी
रचनाओं के सहज सौन्दर्य और सरस गेयता का रहस्य है।’ मनुष्य
का सौन्दर्यबोध जितना अधिक विकसित और व्यापक होगा, उसकी मानवीय संवेदना और करुणा उतनी
ही अधिक विस्तार पायेेगी, तब वह सौन्दर्य की सत्ता को करुण चित्रण के भीतर से भी पकड़
पाने में समर्थ हो जायेगा, यदि कविता में करुणा और पीड़ा जगाने वाली वस्तु या स्थिति को
देखकर हमारे मन में केवल दुख, शोक या घृणा उत्पन्न होती तो आज भवभूति कालकवलित हो चुके होते
और विश्व-साहित्य से शेक्सपीयर का नाम भी मिट चुका होता!
वास्तव में पीड़ा या करुणा जगाने वाली वस्तु या स्थिति
को देखकर हम उससे प्रेम नहीं करने लगते, हम उस कला से प्रेम करते हैं जो दुख, शोक या पीड़ा के कारणों से
घृणा करना सिखाती है। यही वह आधार है जिससे यह कहा जा सकता है कि कला में करुण की परिणति
भी सौन्दर्य में ही होती है। इससे यह भी साबित होता है कि करुणा की अतिशयता या आंसुओं
की अधिकता के कारण महादेवी की कविता को जीवन से परामुख या जीवन की अस्वीकृति की कविता
नहीं कहा जा सकता। हां, इतना जरूर हुआ कि इन अतिशयताओं के कारण उनकी कविता में सहज प्रेम-कविताओं
की-सी तीव्रता नहीं आ पायी वरन अस्पष्टïता आ गई जिसे ही 'रहस्य’ का नाम दे दिया गया।
तो फिर महादेवी की कविता क्या है? डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार-
'महादेवी की
कविता है जीवन की स्वीकृति की कविता! छायायुग की कविता का मूलस्वर है आस्था और जीवन
की स्वीकृति का स्वर! ’ निराला, प्रसाद, पन्त और महादेवी ने इस मूल स्वर को अपनी कविता से सींचा है।
महादेवी वर्मा को छोड़कर शेष तीनों कवियों में आस्था और जीवन की स्वीकृति का स्वर मुखर
होकर सामने आया है। जबकि महादेवीजी में यह स्वर लगभग मौन है। उसमें एक गोपन है,
उस पर एक मनोसामाजिक
दबाव है, यानी
उनके काव्य में 'अण्डरटोन’ की अधिकता है। इसी अण्डरटोन को अब
तक की आलोचना में 'रहस्य’ कहा गया है। महादेवी की सम्पूर्ण
अभिव्यक्ति पर झिलमिलाता आवरण है, इस आवरण में से होकर आस्था और विश्वास छनकर प्रभासित हो रहा
है-
'गला कर मृत पिण्डों में प्राण,
बीज करता असंख्य निर्माण।’ सृष्टि का ये अमिट विधान, एक मिटने में सौ वरदान।’
जीवन के प्रति ऐसा अडिग विश्वास और उत्कट आस्था रखने
वाली महादेवी को जीवन से विरक्त कैसे कहा जा सकता है? उन्होंने जीवन पर पडऩे वाली काली
आंधी और अंधकार को अपनी रागात्मकता से दूर करने की बात अपनी कविता में की है,
दीपक उनकी कविता का
प्रिय उपादान है जो नयी ऊर्जा और आशा का प्रतीक है। कहीं-कहीं यह दीपक जीवन का प्रतीक
बनकर भी आया है जिसका अर्थ कई आलोचकों ने क्षरित जीवन के रूप में लेकर महादेवी को मरण
की कवयित्री मान लिया है। जबकि सचाई यह है कि यह दीपक ही है जो मधुर-मधुर जल कर उनके
प्रियतम का पथ आलोकित करता है। महादेवी जब सब बुझे दीपक जलाने की बात करती है तो इसका
केवल इतना ही अर्थ है कि जीवन के प्रति उनकी अडिग आस्था है। महादेवीजी ने कहा भी है-
'सब बुझे दीपक जगा लूं।
घिर
रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूं।’
यदि ऐसा नहीं है तो फिर वे क्यों कहती हैं-
'दीप मेरे जल अकंपित,
घुल अचंचल!
सिन्धु का उच्छवास घन है,
तडि़त, तम का विकल मन है,
भीति क्या नभ है व्यथा का,
आंसुओं से सिक्त अंचल।’
महादेवी वर्मा की जीवन के प्रति जो आस्था है,
ललक और उत्कण्ठा है,
विश्वास और स्वीकृति
है वह 'दीपशिखा’ की भूमिका के इस कथन से स्पष्टï हो जाती है- 'जीवन और मरण के इन तूफानी
दिनों में रची हुई यह कविता ठीक वैसी ही है जैसे झंझा और प्रलय के' बीच में स्थित मंदिर
में जलने वाली निष्कंप दीप-शिखा।’
यहां यह कहना अत्यन्त आवश्यक जान पड़ता है कि महादेवी
वर्मा की कविता में एक स्पन्दन है। उनकी कविता, जैसा उनका स्वयं का मानना है- झंझा
और प्रलय के' बीच में स्थित मंदिर में जलने वाली निष्कंप दीप-शिखा नहीं है। महादेवी
वर्मा का जीवन वेदना और पीड़ा के अंधियारे में कांपती जिजीविषा की लौ है।
कांपती लौ कहने के पीछे भी मेरा स्पष्टï उद्देश्य है। महादेवी के
काव्य में यह कंपन स्थायी भाव की तरह बसा है। खुद महादेवी की भाषा में चाहे इसे 'स्पंदन’ कह लें या आलोचक दृष्टिï से कंपन, दोनों में कोई विशेष अंतर नहीं है।
उनकी जितनी भी पीड़ा मूलक या वेदना मूलक कविताएं हैं- उनमें यह कंपन आरंभ से अन्त तक
विद्यमान है। समूचे छायायुग में यह प्रवृत्ति निराला की 'सरोज स्मृति’ को छोड़ कर प्रसाद के 'आंसू’ के पदों के अतिरिक्त कहीं नहीं दिखती। पंत तो इस कंपन से लगभग
रीते ही हैं। यह कंपन या स्पंदन ही महादेवी को छायायुग की कविता में विशेष दर्जा दिलाता
है।
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात मैं महादेवी की कविता के संदर्भ
में करना चाहता हूं वह यह है कि क्या महादेवी वर्मा की कविता का आलम्बन, जिसे महादेवी ने तुम,
करूणेश, अतिथि, नाविक, देव, प्रिय, प्रियतम, पाहुन, पी कह कर संबोधित किया है,
वाकई कोई पारलौकिक
सत्ता है या वह इस लोक का कोई व्यक्ति है जिसे महादेवी ने अपनी कविताओं के झिलमिल आवरण
में अवगुंठित कर दिया है? महादेवी की कविता के कुछ उद्धरणों द्वारा हम देखने का प्रयास
करते हैं। महादेवी का एक प्रसिद्घ पद-बन्ध है-
'हे नभ की दीपावलियों,
तुम क्षण भर को बुझ जाना
मेरे प्रियतम को भाता है, तम के पर्दे में आना’
इस पद-बंध को क्या मानें? क्या इसका आलम्बन अलौकिक हो सकता
है? एक अन्य
पद-बन्ध देखिए-
'मेरी आहें सोती हैं,
इन ओठों की चोटों में, मेरा सर्वस्व छिपा है, इन दीवानी चोटों में।’
यहां गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। ऐसा लगता है
कि यहां पर अध्यात्म और रहस्य थोपा गया है। दोनों ही पद लौकिक पे्रम को ही अभिव्यक्त
कर रहे हैं। पहले पद पर गौर करें- महादेवी का जो कोई भी अज्ञात-अलौकिक-अदृश्य प्रियतम
है उसे तम के पर्दे यानी अंधकार में आना अच्छा लगता है, चमकते तारों का प्रकाश भी उसे नहीं
सुहाता, यदि
प्रियतम अज्ञात-अलौकिक-अदृश्य है तो उसके लिए उजाला क्या अंधियारा क्या? कुछ स्वयं महादेवी के व्यक्तित्त्व
की गंभीरता (अस्पष्टïता-जटिलता?) और शेष अध्यात्म और रहस्य की लकीर पीटने वालों ने उनकी सहज-सरल कविताओं पर भी रहस्य
का जाल बिछा दिया। क्या इन तथाकथित रहस्य गीतों को एक युवा स्त्री की आकांक्षाओं,
स्वप्रों और अनुभूतियों
के सहज अभिव्यक्त रूप में स्वीकार नहीं कर सकते? क्यों हम महादेवी वर्मा में भी मीरा
की-सी आदर्श प्रेममूर्ति देखना चाहते हैं?
क्या प्रसाद के 'आंसू’ काव्य के लौकिक धरातल की तरह महादेवी के संपूर्ण काव्य का कोई
लौकिक धरातल नहीं हो सकता? क्या महादेवी एक स्त्री कवि हैं इसलिए उनके पे्रम का आधार लौकिक
नहीं हो सकता या फिर हमारी मध्यकालीन मानसिकता यह स्वीकारने को तैयार नहीं है कि एक
स्त्री कवि पुरुषों की तरह अपने प्रेम का इजहार करे? विशेषकर महादेवी जैसी स्त्री जिनके
जीवन को लेकर साहित्य में यह विवाद भी चला है कि उनको सुश्री कहकर संबोधित किया जाए
या श्रीमती कहकर? यह हमारी असहिष्णुता नहीं तो और क्या है कि एक स्त्री कवि को उसकी कविता से नहीं
वैवाहिक स्थिति से पहचाना जाए!
जिस दौर में महादेवी वर्मा की कविताएं रची गईं वह दौर
भारतीय जनमानस में द्वंद्व का रहा है। थोथे आदर्शों को नारी जीवन पर थोपा जाना उस समय
का सांस्कृतिक शगल था। इस सचाई को महादेवी ने बड़ी गंभीरता से समझा और 'भाभी’ जैसे पात्र द्वारा नारी जाति की इस त्रासदी को अभिव्यक्त भी
किया। ऐसे समय में महादेवी वर्मा जैसी पढ़ी-लिखी महिला, जो एक कवि भी है और एकाकी भी है,
जिसने अपने वैवाहिक
संबंधों को नकार दिया है और जिसके वैवाहिक-स्तर का सामाजिक तौर पर खुलासा नहीं है,
वह प्रेम कविता लिखे
तो उस समय के मध्यकालीन संस्कार कैसे सहन करते? महादेवी वर्मा ने इस सचाई को जल्दी
से समझ लिया और उनकी कविता ने अभिव्यक्ति को अक्षुण्ण रखने के लिए एक समाज-स्वीकृत
पद्घति अंगीकार कर ली और वह थी परलोक और रहस्य की पद्घति! एक स्त्री का किसी से प्रेम
करना और उस प्रेम को कविता का रूप देना उतना आसान नहीं था जितना प्रेम पर अध्यात्म
का आवरण डालकर उसे कविता का रूप देना।
स्वयं महादेवी ने स्वीकार किया है कि- 'अलौकिक रहस्यानुभूति भी अभिव्यक्ति
में लौकिक ही रहेगी।’ इस लौकिकता का निर्वहन करने
के लिए महादेवी वर्मा के लिए अभिव्यक्ति महत्त्वपूर्ण थी, उसकी विषय-वस्तु महत्त्वपूर्ण थी,
अभिव्यक्ति के लिए
प्रयुक्त प्रतीक और आलम्बन का स्वरूप महत्त्वपूर्ण नहीं थे। डॉ. रमेश कुंतल मेघ का
यह कथन इस संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय है-
'नीहार’ से 'रश्मि’ चरण तक सत्रह से चौबीस साल तक की इस संघर्षशील युवती कालेज-छात्रा
की सृजनात्मक और अनिर्वचनीय अनुभवों वाली कविताओं में शुद्घ वेदान्ती रहस्यवाद तथा
उच्च दार्शनिक अध्यात्मवाद थोप देना जबर-जुलम नहीं तो भला क्या है?........अतएव यह ज्यादा न्याय संगत
लगता है कि उनके नारी जीवन की मनोकामुक, मनोसामाजिक तथा समाजसांस्कृतिक समस्याएं ही 'नारीत्व की रहस्यमयता' बनीं जिन्हें उनकी
कवयित्री ने प्रतीकों और अप्रस्तुतों द्वारा अस्पष्टïत:-अटपटी नयी संध्या भाषा में-अभिव्यक्त
किया।’
महादेवी अपने गद्य में जितनी मुखर है काव्य में उतनी
ही मौन! उनके मौन को, या जिसे मेघजी ने अस्पष्टï-अटपटी भाषा कहा है को ही रहस्यवाद का नाम दिया गया है। उनके
मौन के कारण जितना रहस्यवाद उनके काव्य पर आरोपित किया गया उतना ही उससे जीवन का उल्लास
और मानवीय पक्ष उपेक्षित होता गया। जहां भी कविता पर रहस्य का आवरण डाल दिया जाता है
वहां जीवन की सहजता और लोक तिरोहित हो जाते हैं। कबीर, तुलसी और सूर में सूर इसलिए ज्यादा
लोक-संपृक्त हैं क्योंकि उनके यहां रहस्य के स्थान पर लोक की सहज सुलभता है। कबीर और
तुलसी में कवि के स्थान पर दार्शनिक की खोज ज्यादा की गई, यह महादेवी वर्मा की कविता के साथ
भी हुआ। उन्हें छायायुग की श्रेष्ठï रहस्यवादी कवयित्री के रूप में महिमा मंडित करके उनकी
कविता की सहजता और लोक-संपृक्ति का अपहरण किया गया। एक नारी की सहज आशाओं- आकांक्षाओं
और अनुभूतियों के केन्द्र में उनकी कविता को न देख कर एक रहस्यवादी साधिका के रहस्यगीतों
तक उनकी कविता के उद्देश्य को समेट दिया गया। ज्यादा कुछ बन पड़ा तो बुद्घ के पीड़ा-दर्शन
को इनकी कविताओं में देखा गया, पर मूल दृष्टिï यहां भी वही थी, ताबड़तोड़ निष्कर्षों और महान शोधों
द्वारा उन्हें पीड़ा और वेदना-दर्शन की श्रेष्ठï कवयित्री के रूप में स्थापित कर दिया
गया, रहस्यवादी
कवयित्री के रूप में स्थापित किया गया। पर उनके काव्य की सचाई और सहजता इन महान विशेषणों
और स्थापनाओं के नीचे दबती चली गयी।
अंतिम बात महादेवी की करुणा की! महादेवी जी की कविता
की करुणा का संबंध हमारी मध्ययुगीन और सामंती मानसिकता से है। महादेवी एक सहिष्णु और
कोमल स्त्री हैं, उनकी करुणा व्यक्तिपरक या आत्मगत नहीं है वह बहिर्मुखी और समाजपरक भी है। वह 'सामंतीय संस्कारों और आधुनिक
संघर्षों के बीच द्वंद्वात्मक समन्वय के लिए जागरुक और आकुल हैं। इसी द्विधा और द्वंद्व
के कारण उन्हें सर्वाधिक सामाजिक पलायन तथा गुप्त अस्वीकृतियां करनी पड़ी, उन्हें लम्बी आत्मयातना और
गहरी आत्मवेदना भोगनी पड़ी।' इससे उनकी अभिव्यक्ति को
पीड़ा और करुणा का अवलम्ब ग्रहण करना पड़ा। वे खुद पीड़ा और करुणा का पारावार लेकर
लोक को पीड़ा से मुक्त करना चाहती थीं। करुणा पे्रम में पलती है। महादेवीजी के प्रेम
वर्णन में इद्रिय जनित वासना की जलाने वाली ज्वाला नहीं है वहां तो करुणा कि एक स्निग्ध-सी
लौ है जो मधुर-मधुर जलती हुई संपूर्ण लोक के कण-कण में अपना उजियारा फैलाना चाहती है।
वह स्वयं जल कर भी मुस्कुराती है और मिट कर पुन: मिटने का ही वरदान मांगती है। प्राणों
की मजबूत पकड़ से महादेवी जीवन के प्रति आस्था और अडिग विश्वास को रेखाकिंत करते हुए
कहती हैं-
'पर शेष नहीं होगी यह,
मेरे प्राणों
की क्रीड़ा तुमको पीड़ा में ढूंढा, तुममे ढूंढूगी पीड़ा।’
दिनांक 19-3-2006 को महादेवी वर्मा जन्मशती वर्ष के शुभारंभ
के अवसर पर 'राजस्थान साहित्य अकादमी’ व 'साहित्य संगम, अलवर’ के तत्त्वावधान में आयोजित समारोह में दिया गया भाषण फिर आदरणीय विजेंद्र जी इसे ‘कृति
ओर’ मे भी छापा था।
डॉ.नन्दकिशोर नीलम
277, 'कनुप्रिया’ नेशनल
गल्र्स कालेज के सामने, विजय नगर, अलवर (राज.) 301001
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