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कार्ल मार्क्स की जीवनी.... और फिर त्रासदियाँ

जहाँ अन्य सभी विचार और सिद्धांत स्वार्थवश स्थापित किया गए थे,  सत्ता और पुरोहित वर्ग के निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए  उनका अनुशरण करना सब के लिए बाध्यता थी,  वहीँ कार्ल मार्क्स के सिद्धांत नितांत  निस्वार्थ भाव से प्रेरित  सब के हित के लिए थे.  अन्याय, शोषण और अज्ञान से लड़कर  उन्होंने दुनिया के सर्वहारा वर्ग को रोशनी दिखाई. उनके सिद्धांतों और विचारों से तो हम सब परिचित हैं ही,  पर सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी दर्शन के जनक मार्क्स का वैयक्तिक जीवन भी भीषण त्रासदियों से आक्रांत था.  शासक वर्ग, पुरोहित वर्ग और पूँजीपतियों से  ताउम्र संघर्ष करने वाले मार्क्स को अपने  और अपने परिवार के स्वास्थ्य के लिए भी  खूब संघर्ष करना पड़ा था.  मार्क्स की जीवनी के इस अंश से हम  उनके जीवन की इन परिस्तिथियों को समझ  सकते है. नन्दकिशोर नीलम  इस जीवनी का अंतिम अंश- ‘और फिर त्रासदियाँ’ आप सब के लिए..... .... और फिर त्रासदियाँ भागीरथ बौद्धिक परिश्रम और भीषण आर्थिक अभावों ने कम उम्र में ही मार्क्स के शारीर को निश्शक्त कर दिया. १८७४ में उनका यकृत-रोग ब

मौलिक अधिकारों के संघर्ष की तैयारी .... रामनाथ शिवेंद्र का उपन्यास: तीसरा रास्ता

(‘हंस’ के फ़रवरी २००८ अंक में प्रकाशित एक समीक्षा) एन.जी.ओ. की भूमिका पर अनगिनत सवाल उठते रहे हैं , एन.जी.ओ. ने अपनी कार्यप्रणाली और समग्र व्यवहार से बराबर ऐसे हालात पैदा किए हैं जिससे ऐसी तमाम धारणाएं पुष्ट और प्रमाणित हुई हैं कि इनकी भूमिका विकास विरोधी दलालों की तरह है. निरीह जनता के हिस्से की कल्याणकारी योजनाओं की अकूत राशि इनके पंचतारा ऐशो-आराम पर खर्च कर दी जाती है. बाड़ का काम खेत की रखवाली करना होता है , पर यदि बाड़ ही खेत खाने लगे तो! संभवत: एन.जी.ओज की भूमिका पर अपनी रचनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले रामनाथ शिवेन्द्र के महत्त्वपूर्ण उपन्यास ' तीसरा रास्ता ’ में यही संशय उमड़ता-घुमड़ता रहता है. ' मानवाधिकार जन समिति ’ नाम की एन.जी.ओ. का कर्ताधर्ता डी. बी. जैसा शातिर व्यक्ति , जिसके हाथ में समाज को बदलने की ताकत और साधन दोनों हैं , शोषक और भक्षक की भूमिका में है. समाज की बेहतरी के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले संसाधनों को वह समाज के विनाश के , समाज की चेतना को कुंद करने के हथियारों के रूप में तब्दील करने में माहिर है. वह कहता है '' क्रांति एक छलावा