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भाजपा का 'राम राग-चुनावी'

चुनाव आते ही भाजपा राम - मंदिर का राग छेड़ देती है । आडवानी जी ने इस बार भी राम - मंदिर बनाने की बात कही है । यह राम राग - चुनावी है जो हर चुनाव में भाजपा की आदत बन गयी है । इस सम्बन्ध में मुझे यागेन्द्र आहूजा की कहानियों पर ' परिकथा ' पत्रिका के मई - जून २००९ अंक में छपे अपने आलेख - " विकट अंधियारे में प्रतिरोध की उजली हँसी : योगेन्द्र आहूजा की कहानियां " की याद आ रही है जिसमे मैंने लिखा था .... " संप्रदयिकता और इससे उत्पन्न अन्यान्य समस्याओं के विश्वव्यापी प्रभाव ने योगेन्द्र के मर्म पर भी गहरी चोट की है, जिसका रचनात्मक प्रतिफलन है उनके ‘ अँधेरे में हँसी ’ संकलन की ‘ अँधेरे में हँसी ’ और ‘ मर्सिया ’ कहानियां. इन कहानियों की खासियत यह है कि ये बिना हाहाकार मचाये एक गहरी व्यंजना में सांप्रदायिकता के खुनी चेहरे को उघाड़ देती हैं. यथार्थ के नाम पर खूनी-खेल के खबरिया वर्णन न करके कहानीकार ने इस समय की विडम्बना को ‘ सार्थक विडम्बना ’ के रूप में पुनर्सृजित किया है. ‘ अँधेरे में हँसी ’ कहानी में य

गाँव के बच्चे

दूरदराज गाँव के बच्चे अभ्यस्त हैं अपनी भेड़-बकरियां चराने के मुंह-अँधेरे उठा देती है माँ गाय-भेंसों का गोबर थापने के लिए और चलता कर देती है दिन चढ़ते ही कांकड़ में प्याज और रोटी देकर भेड़-बकरियों के साथ...... खुले आकाश के नीचे काँटों की बाड़ में चल रही प्राथमिक पाठशाला के पास से गुजरते हुए वे झांकते हैं पलभर को पाठशाला के भीतर, और 'दो दूनी चार' की रट में रेवड़ से बिछुड़ गई अपनी बकरी को बुलाने की टेर मिलाते हुए दौड़ जाते हैं उसकी ओर! वे अभ्यस्त हैं रोज ही पाठशाला को अपने से पीछे छोड़ जाने के! गाँव के बच्चे अभ्यस्त हैं गाँव से दूर बनी पक्की सड़क पर गुजरते हुए वाहनों को देखने के वे ले जाते हैं अपने रेवड़ को बेपरवाह होकर सड़क के पार कभी-कभी वाहन रुकता है चिंघाड़ कर- चरमराता हुआ और अभ्यस्त बच्चे हांकते हुए भेड़-बकरियों को चुपचाप निकल जाते हैं ड्राईवर की फिट्टी गालियों का नहीं होता कोई असर गाँव के बच्चे अभ्यस्त हैं रोज ही ड्राईवरओं की भद्दी गलियां सुनने के! गाँव के बच्चे ले आते हैं साँझ के समय लौटते हुए कांकड़ से चुनी हुई झाड़ियों और ल

विवेकानंद के विचारों का सच

विवेकानंद जी ने अध्यात्म , धर्म , समाज आदि विषयों पर अपने मौलिक चिंतन से सबका ध्यान खींचा , पर जैसा कि हमारे यहाँ होता आया है , उनके वास्तविक विचारों को हाइजेक कर लिया गया. यह हमारी फितरत है. पर वास्तव में विवेकानंद ऐसे नहीं थे जैसा उनको प्राय: दिखाया जाता है. वे भारत की जनता के प्रति बहुत संवेदनशील थे और आशावान भी. उन्होंने एक जगह लिखा है-  ‘ भारत की एक मात्र आशा उसकी जनता है. उच्चतर वर्ग तो दैहिक और नैतिक रूप से मृतवत हो गए है. ’ . विवेकानंद समाजवाद (कार्लमार्क्स के विचारों) से बहुत प्रभावित थे. उन्होंने स्पष्ट लिखा है- “ मैं एक समाजवादी हूँ. इसलिए नहीं कि वह एक सर्वगुण संपन्न सम्पूर्ण व्यवस्ता है बल्कि इसलिए कि रोटी के आभाव की अपेक्षा आधी रोटी बेहतर होती है. अन्य व्यवस्ताओं की परीक्षा की जा चुकी है और उसमे आभाव ही आभाव पाए गए हैं. अब इस की (समाजवाद की) भी परीक्षा कर ली जाये. ” धर्म और ईश्वर से सम्बंधित उनकी मान्यताएं भी बहुत प्रगतिशील थीं. धर्म और ईश्वर के प्रति अविश्वास प्रकट करते हुए उन्होंने कहा है-  “ मैं ऐसे धर्म या ईश्वर में विश्वास नहीं करता जो स्वर्ग में तो मुझे

विजेन्द्रजी हमारे समय की जीवंत काव्य विरासत है

विजेन्द्रजी हमारे समय की जीवंत काव्य विरासत है। मठाधीश आलोचकों, तानाशाह संपादकों और महान कवियों के लाख नकारने के बाद भी समय की छलनी ने यह साबित कर दिया है कि...वे हमारे जटिल समय के बहुत जरुरी कवि हैं। वे लोकधर्मी चेतना के कवि हैं। उनकी लोक चेतना लोक जीवन के रूढिगत बंधनों से मुक्त करती है। नयी पीढ़ी के कवियों के लिए वे लोक कविता के संवाहक हैं। समकालीन लोककविता (और लम्बी कविता) में चरित्र को लेकर उन्होंने जो प्रयोग किये हैं वे दुर्लभ हैं। ये समय लोक और लोक कविता को सही सन्दर्भों में समझने का है। लोक के प्रति हमें भाववादी रुझान से मुक्त होना पड़ेगा। अपनी सोच को बड़ा बनाना पड़ेगा। लोक, लोक जीवन और लोक कविता के बद्धमूल शास्त्रीय निष्कर्षों से मुक्त होकर आज के जीवन की लोक धड़कन को सुनना होगा। विजेंद्र की लोकधर्मी कविता के मूल्यांकन के लिए 'लोकरंग और जीवन राग की आलोचना' की दरकार है। जिसको हमारे समय के प्रबुद्ध आलोचक डॉ. जीवन सिंह साध रहे हैं। जीवन सिंह की आलोचना 'लोकरंग और जीवन राग की आलोचना' है। हमारे समय में एक साथ तीन - तीन पीढियां कविता कर्म में संलग्न हैं. विजेंद्र यहाँ

मुक्तिबोध की तरह बेचैन है वो!

साहित्यिक पत्रिका "हंस" की लंबी कहानियों पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की पोस्ट डोक्टोरल फेलोशिप (PDF) के तहत अपना शोधकार्य सम्पूर्ण कर प्रबंध विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को भेज दिया है. इस कार्य में मेरे दो उर्जावान युवा साथियों - समीर और चारुलता ने जो अथक परिश्रम किया है वह उल्लेखनीय है. उनकी (विशेषकर चारुलता की) हिंदी कहानी के प्रति विकसित हो रही समझ को लेकर में विस्मित हूँ! चर्चा के दौरान जब वह अपनी बात कहती थी तो मुझे अपने निष्कर्षों की फिर से पड़ताल करने के लिए बाध्य होना पड़ता था. उसकी तार्किकता और साफ़ समझ को लेकर कई बार इर्ष्या भी होती थी. अगर वह नियमित लेखन करने लगे तो हिंदी कहानी आलोचना में एक अलग लकीर खींच सकने में सक्षम है. पर लेखकीय और आलोचकीय ईमानदारी को लेकर वह हमेशा चिंतित रहती है. उसकी बेचैनी कभी-कभी तो डराती है. फेसबुक पर भी वह लोगों से लड़ती-भिड़ती रहती है. लेखकों-आलोचकों के स्वार्थ, झूठ, दोगलेपन, अवसरवाद, मिथ्या दंभ, गुटबाजी, मित्र कशीदा, पुरस्कार लिप्सा, अंध विश्वास, कर्म कांड, आडम्बर, पक्षधरता, प्रतिबद्धता आदि कई मुद्दों पर वह आक्रामक हो जाती है. मै
सभी साथियों का मेरे ब्लॉग "आरोहण" में स्वागत है.