वादधर्मान्धता, वामपंथी अवसरवाद और वामपंथ



वर्तमान समय में फेली वादधर्मान्धता से चिंतित होकर एक साथी ने अपनी वाल पर अपनी पीड़ा इस रूप मे व्यक्त की है - ‘’….. एक दिन दुनियाँ के सारे वाद कुत्ते की मौत मर जायेंगे या मार डाले जायेंगे और सिर्फ हम जियेंगे ...’’
इनका यह कहना बहुत वाजीब है कि वादधर्मान्धता बढ़ रही है। यह भी ठीक है कि ‘सहअस्तित्वों और विचार के पनपने के लिए कोई जगह छोड़ी ही नहीं जा रही है।’ और यह भी ठीक है कि ‘निर्विवाद जीवन की इच्छा विचार हीनता तो नहीं ही है।’ पर इनका यह कहना बहुत निराशाजनक लगा कि ‘.. इस सब से खीझा हुआ एक आम आदमी इनके विनाश के अलावा अपनी प्राथमिक कामना में और कुछ नहीं रख सकता है’
रख सकता है, बहुत कुछ कर सकता है। वादधर्मान्ध लोगों को पहचान कर, उनके उद्देश्यों को पहचान कर, उनके मुखौटों को नोचकर उनको एवं उनके वाद को अपने स्तर पर बहिष्कृत किया जाकर बहुत कुछ किया जा सकता है। 
बात दरअसल यह है कि सब तरफ ‘अवसरवादियों’ की बहुत बड़ी भीड़ हम लोगों के बीच घुल-मिल गयी है और कई जगहों पर तो यह भीड़ अब हमारा नेतृत्व भी अपने हाथों मे ले चुकी है। वामपंथ के भीतर भी ऐसे अनेक अवसरवादी लोग घुसपैठ कर चुके हैं। यही नहीं ये लोग व्यापक स्तर पर नैतृत्व भी अपने हाथ ले चुके हैं। इससे वामपंथ का बहुत नुकसान हुआ है। ऐसे लोगों की वजह से विचार और वाद बहुत बदनाम हुए हैं। 
वाद और विचार को खुल कर स्वीकारने का माद्दा केवल वामपंथियों मे है। दूसरे लोग तो वैसे भी वाद और विचार को मानने का साहस दिखा ही नहीं पाते हैं। इससे यह हुआ है कि वाद और विचार पर जितनी भी टिप्पणियाँ की जाती हैं उनका एकमात्र लक्ष्य होता है वामपंथ को नीचा दिखाना! मार्क्सवाद का विरोध करना। आज वाद-विचार विरोध वामपंथ के विरोध का पर्याय बन चुके हैं। 

यहाँ यह भी बता दूँ कि इस समय ऐसे बहुत लोग हैं जो वास्तव में तो विचार-वामपंथ विरोधी हैं पर वामपंथ का चौला ओढ़े सब को गुमराह कर रहे हैं और वामपंथ को बदनाम और बर्बाद दोनों। यही घुन वामपंथ को खोखला कर रहे हैं। ऐसे लोग वास्तव में वामपंथी-अवसरवादी हैं जो हर तरफ से लाभ लेने की भूख से पीड़ित हैं। ये लोग बिलकुल थाली के बेंगन या बिन पेंदे के लोठे की तरह होते है, हमेशा लाभ की तरफ झुक जाते हैं। जैसे कम्पास की सुई हमेशा उत्तर दिशा की ओर झुकी रहती है। 

8-10 बरस पहले अधिकांश लेखक वामपंथी थे, और जो वामपंथी नहीं थे वो खुल कर पूरी ईमानदारी से वामपंथी साहित्य का विरोध करते थे। पर आज उनमें से ज़्यादातर वामपंथ का विरोध कर रहे हैं। गौर कीजिये जब तक वामपंथ केंद्र सरकार के समर्थन मे थी तब तक लेखक खुद को वामपंथी कहने मे गर्व महसूस करता था। क्योंकि इस समय अनेक प्रकार के लाभों की संभावना थी। पर वामपंथ के केंद्र सरकार से परमाणु मुद्दे पर समर्थन वापसी के बाद एकाएक ऐसा क्या हुआ कि ज़्यादातर लेखक खुद को वामपंथी कहने मे डरने लगे? लोग खुल कर वामपंथ के विरोध मे आने लगे। यह अलग बात है कि कई लोगों ने अब भी एक ‘चोर गली’ छोड़ रखी है ताकि अवसर पाते ही वामपंथी खेमे में भाग सकें। 

पर, ज़्यादातर ने मुक्तिबोध और नागार्जुन का आलाप बंद करके अज्ञेय का महिमामंडन आरंभ कर दिया। हर सभा-गोष्ठी में अज्ञेय के साहित्य के अनमोल मोती खोज-खोज कर पेश किए जाने लगे। खुद को मार्क्सवाद विरोधी साबित करने के इस महायज्ञ में कई ‘श्रेष्ठीजनों’ ने ऊंचे स्वरों में आहूतियाँ दी। इस बहती गंगा में काइयों ने हाथ धोये। साहित्य और विचार जगत में वामपंथ जैसे गाली बन गया। वामपंथ को कुछ इस तरह प्रचारित किया गया कि वह कांग्रेस का दुश्मन है। भाजपा और उसके समर्थक तो पहले से ही वामपंथ के उतनी ही नफरत करते है जितनी इस्लाम से, अब कांग्रेस भी वामपंथ को दुश्मन मानने लगी। 

कला, साहित्य, विचार और राजनीतिक जगत में हवा कुछ इस तरह फैलाई गयी कि वामपंथ को कांग्रेस का सबसे बड़ा शत्रु माना जाने लगा। ‘अखिल भारतीय साहित्य परिषद’ के लेखक और ‘थाली के बेंगन’ लेखक हिन्दी-चीनी भाई-भाई हो गए। अशोक वाजपेयी जैसे कई धुर कलावादियों की पौबारह हो गयी। भाजपा सरकार की तरह कांग्रेस सरकार में भी वो मसीहा-पुरोधा बन गए। इनके समस्त चाटुकार जो इस समय तक वामपंथ का चौला धारण किए बैठे थे, अपने असली रूप मे आ गए और शुरू हुआ कांग्रेस और जनसंघियों का एक महा गठजोड़। सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों और कलवादियों का जनसंस्कृति को नष्ट करने वाला समझोता। (जैसे हमारे राजस्थान के सरकारी कॉलेजो के प्रोफेसर लोग भाजपा की सत्ता आते ही अपनी नेकर और टोपी निकाल कर, कलफ लगाकर ध्वज प्रणाम के लिए तत्पर हो जाते हैं, मजे की बात तो यह है कि कुछ तो अपनी मुछें तक विशेष प्रकार की सेट करवाते हैं। और कांग्रेस की सत्ता आने पर नेकर-टोपी पोटली मे बांध कर अंधेरी कोठरी में पटक देते हैं। कुछ विचारे हाइबार्नेशन की मुद्रा मे चले जाते हैं। )
यह सब जानते हैं की कांग्रेस का कोई वैचारिक आधार नहीं है। भाजपा का तो फिर भी ‘भाजपा बुधद्धिजीवी प्रकोष्ठ’ है पर कांग्रेस का कुछ नहीं। और यह भी सब जानते हैं की साहित्य में जो रूपवादी और कलावादी हैं वे सब संघी तोते हैं। ‘अखिल भारतीय साहित्य परिषद’ इस बात का साक्षी है। ऐसे में सारे के सारे कलावादी अवसरवादी (जो अब तक वामपंथ का लबादा ओढ़े थे, कई विभिन्न विश्वविद्यालयों में और दिल्ली के कालेजों मे अध्यापक बन गए थे।) कांग्रेस की चाटुकारिता में लीन हो गए। तभी तो पिछले साल कई साहित्यकारों की जन्मसतियाँ होने के बाद भी केवल अज्ञेय को ही सर्वत्र तवज्जो मिली। अज्ञेय एकाएक महान हो गए। ‘अंधेरे में’ से बहुत बड़ी कालजयी रचना ‘असाध्य वीणा’ हो गयी (नन्दकिशोर आचार्य, प्रो रामबक्ष)। 
नागार्जुन ओछे और अप्रासंगिक हो गए। कांग्रेस को याद दिलाया गया कि यह वही नागार्जुन है जिसने एमर्जेंसी के समय इन्दिरा गांधी को काली और न जाने क्या-क्या कहा। नेहरू को वतन बेचने वाला कहा। इस समय में केदारनाथ अग्रवाल का तो कोई मानलेवा भी नहीं था! क्योकि नेतृत्व महान कला-रूपवादी अशोक वाजपेई जी और ओमथानवी जी जैसे कई-कई वामपंथ विरोधी कर रहे थे। और बाकी काम तो इनके अवसरवादी गुर्गे कर ही रहे थे। और अब भी कर रहे हैं। 

कहना बस यह चाहता हूँ कि वादों के अंधवाद मे लिप्त जो भी वादधर्मान्ध लोग हैं, वो अवसरवादी है। इनका किसी वाद से कोई लेना देना नहीं है। इनका ईमान कोई वाद नहीं सिर्फ स्वयं का लाभ है। ये लोग सत्ता के पिछलग्गू हैं, चाटुकार हैं, उगते सूरज को दंडवत करने वाले है। लेखन का अर्थ इनके लिए केवल प्रसिद्धि और पुरस्कार है। इसलिए ऐसे लोगों को पहचान कर इनका बहिष्कार किया जाय न कि किसी वाद या विचारधारा को कुत्ते की मौत मारा जाय ।

टिप्पणियाँ

  1. शानदार लेख लिखा है आपने. यह ताक़त देता है साथी!

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  2. यह एक आँख खोलने वाला लेख है. आज के राजनीतिक सांस्कृतिक परिदृश्य की बेवाक अभिव्यक्ति. इसे पढ़ाने के लिए धन्यवाद.

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  3. बढिया लिखा है. तीन पेरा दो बार आगए हैं. दुरुस्त कर लेना चाहिए.

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  4. अशोक जी, बटरोही जी आभार. मोहन सर, इस पर तो मेरा ध्यान गया ही नहीं था .. धन्यवाद. जल्द दुरुस्त करता हूँ ..

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