रामविलास शर्मा निश्चय ही 'आलोचना की दूसरी परम्परा’ के शलाका-पुरूष हैं: डॉ. शिवकुमार मिश्र
डॉ. शिवकुमार मिश्र हिन्दी-आलोचना की मार्क्सवादी
धारा के
गहन चिन्तक और उदार आलोचक हैं।
उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य की सैद्धान्तिक
आवधारणाओं पर
जो गहन विमर्श किया है, वह अद्वितीय है।
यही नहीं उन्होंने हिन्दी-आलोचना की दूसरी
परम्परा
की अवधारणा को भी हिन्दी साहित्य में रूपायित
किया।
डॉ. नामवर सिंह की दूरारी परंपरा की
तरह उनकी दूरारी परंपरा
किसी का कद छोटा-बड़ा नहीं करती वरन
भारतीय मनीषा और चिन्ताधारा के आधार
पर
समाज की जरुरत को देखते हुए उसके
सामाजिक सरोकारों का मूल्यांकन करती
है।
समय-सयम पर अपने शोध कार्य के लिए मुझे
उनका सहयोग मिलता रहा है।
कभी पत्रों के माध्यम से तो कभी फोन पर
ही और कभी-कभी साक्षात्कार के माध्यम से। यह साक्षात्कार मई, 1998 में उनके निवास आनन्द, गुजराज में रिकार्ड किया गया था।
यह साक्षात्कार मेरे शोध-प्रबंध में भी प्रकाशित है.
नन्द :- डॉ. साहब मैं 'हिन्दी आलोचना की दूसरी परम्परा और रामविलास शर्मा का
आलोचना संसार’ विषय पर काम कर रहा हूँ। आपने दूसरी परम्परा की अवधारणा के आधार पर कुछ लेख
रामविलासजी पर भी लिखे हैं। मैं आपसे पहली बात यह जानना चाहता हूँ कि रामविलासजी की आलोचना का मुख्य आदर्श और प्रतिपाद्य
आपकी दृष्टि में क्या है ?
डॉ. मिश्र:- इस प्रश्न का उत्तर बहुत व्यापक है। डॉ. रामविलास
शर्मा की सीमक्षा पर काफी कुछ लिखा गया है - मार्क्सवादियों के द्वारा भी और गैर-मार्क्सवादियों
के द्वारा भी। उनके समीक्षा-कार्य पर स्वतंत्र पुस्तकें-शोध प्रबंध भी लिखे गए हैं।
आपको उन्हें ध्यान-पूर्वक पढऩा चाहिए। डॉ. रामविलास शर्मा की आलोचना का आदर्श तथा प्रतिपाद्य
मेरे विचार से साहित्य की समाज या जन-संदर्भता ही है। जो साहित्य अपने समय, अपने समाज और उसके साधारण जन के जीवंत क्रियाकलापों, संदर्भों, मनोवृत्तियों, आकांक्षाओं तथा संघर्षों से जितना अधिक जुड़ा होता है, वह उतना ही प्रभावशाली होता है। डॉ. रामविलास शर्मा साहित्य
की सामाजिक तथा जनप्रतिबद्धता के हामी हैं। कला तथा सौन्दर्य का स्त्रोत भी वे जनता
के जीवन में ही मानते हैं।
नन्द :- रामविलासजी के अध्ययन का आरम्भ ही मार्क्सवादी
चिन्तन का परिचय देकर किया जाता है। आपने जो कला तथा सौन्दर्य का स्त्रोत जनता के जीवन
का होने की बात रामविलासजी ने कही है यह भी माक्र्सवादी चिन्तन का एक आयाम है। तो क्या
आप यह स्वीकार करते हैं कि रामविलासजी माक्र्सवादी दर्शन के अनुगामी हैं ? या फिर यह मानते हैं कि वे भारतीय मनीषा और चिन्ताधारा
से अनुप्राणित जन-जन के हित की चिन्ता में रत जन-मानवतावादी विचारक ?
डॉ. मिश्र:- मार्क्सवाद
एक विश्व-दृष्टिकोण है जो हमें संसार तथा समाज और उसके क्रियाकलापों को समझने तथा विश्लेषित
करने की दृष्टि देता है। डॉ. रामविलास शर्मा मार्क्सवादी इसलिए हैं कि संसार तथा समाज, जिसमें भारतीय समाज भी है, हिन्दी क्षेत्र और हिन्दी क्षेत्र का साहित्य है, को समझने-समझाने तथा विश्लेषित करने में उन्होंने माक्र्सवादी
दृष्टिकोण का विनियोग किया है। मार्क्सवाद के बारे में उनकी जो समझ और सोच है, और उसके आधार पर साहित्य तथा समाज संबंधी जो निष्कर्ष
उन्होंने निकाले हैं, जो स्थापनाएँ दी हैं, उनसे हमें जब तब मतभेद
हो सकता है, विनियोग सम्बन्धी और समझ सम्बन्धी कुछ गलतियाँ भी हो
सकती हैं, जो किसी भी विचारक के संदर्भ में स्वाभाविक हैं, किन्तु इस बारे में भ्राँति नहीं होनी चाहिए कि वे बुनियादी
तौर पर मार्क्सवादी विचारक और विश्लेषक हैं। भारतीय मनीषा तथा भारतीय चिन्ताधारा की
उनकी समझ उनके मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर आधारित है। मार्क्सवाद पर आस्था और भारतीय
चिन्ताधारा तथा भारतीय मनीषा से जुडऩा दो अलग बातें नहीं हैं। मार्क्सवादी- मार्क्सवादी-विश्वदृष्टि
के प्रति प्रतिबद्ध होकर भी अपने देश की मनीषा और चिन्ताधारा से अलग नहीं होता, वरन् मार्क्सवाद के आलोक में
उसका मूल्यांकन करते हुए उसके सकारात्मक-नकारात्मक पहलुओं को रेखांकित करता है; उसके उन जीवंत पक्षों को उजागर करता है जो उसे आगे के
समयों में भी प्रेरक बनाए रहते हैं। मार्क्सवाद संस्कृति हो या साहित्य, उनके प्रति हमें अंधमोहासक्त नहीं बनाता, वरन् उनके प्रति विवेक सम्मत
दृष्टिकोण अपनाने की सीख देता है। डॉ. रामविलास शर्मा का कार्य इसी दिशा में किया गया
कार्य है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि उससे कुछेक पहलुओं पर मतभेद हो सकता है, उसमें विनियोग-संबंधी त्रुटियाँ हो सकती हैं, उनकी कुछ स्थापनाएँ विवादास्पद और अमान्य हो सकती हैं, किन्तु वह कार्य मार्क्सवाद की उनकी अपनी समझ पर आधारित
कार्य ही है।
नन्द :- आपकी बात से यह स्पष्ट होता है डॉ. साहब कि रामविलासजी
का सारा चिन्तन मार्क्सवादी दर्शन पर आधारित है लेकिन उन्होंने अपने वैज्ञानिक दृष्टिकोण
के कारण मार्क्सवाद के उन्हीं तत्त्वों को ग्रहण किया जो समग्र रूप से मानवघाती प्रवृत्तियों
का विरोध करते हैं? जैसे उन्होंने मार्क्सवाद की भी कुछ स्थापनाओं को नकारा
है तो अब यही माना जाना चाहिए कि उनकी दृष्टि जरूर मार्क्सवादी है पर भारतीय परिवेश
और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही उन्होंने आलोचना लिखी है ?
डॉ मिश्र:- बिल्कुल सही
बात है।
नन्द :- अच्छा, यह बताइये डॉ. साहब आजकल
मार्क्सवादी, प्रगतिवादी, प्रगतिशील, समाजवादी, जनवादी इन सब आलोचना-धाराओं
का एक घालमेल नजर आता है। क्या ये सब एक ही विचार-सरणि की देन हैं या इनमें कोइ मूलभूत
अन्तर हैं ?
डॉ मिश्र:- ये सारी आलोचनाएँ
एक ही विचार-सरणि की आलोचनाएँ हैं। अलग-अलग धाराओं में प्रतिपाद्य के अनुसार बल अलग-अलग
बातों पर हो सकता है, किन्तु यह सब एक ही विचार-परम्परा के अन्तर्गत व्याख्यायित
हो सकती हैं।
नन्द :- डॉ. साहब, आपने मार्क्सवादी आलोचना
परम्परा को ही हिन्दी आलोचना की दूसरी परम्परा कहा है। तो फिर पहली परम्परा कौनसी है
और इन दोनों में क्या मुख्य अन्तर है ?
डॉ. मिश्र:- जिसे हम आलोचना की दूसरी परम्परा कहते हैं, उसका अपना तार्किक आधार है। कोई भी आलोचना-दृष्टि हो, वह बुनियादी तौर पर किसी न किसी दार्शनिक दृष्टिकोण पर
ही आधारित होती है। दुनिया को देखने समझने के नजरिए के भीतर से ही साहित्य तथा संस्कृति
को देखने-समझने का नजरिया जन्म लेता है। जहाँ तक संसार के उपलब्ध दर्शनों की बात है, उन्हें मोटे तौर पर दो विभागों में बांटा जा सकता है
- भाववादी-प्रत्ययवादी (Idealistic) दर्शन तथा भौतिकवादी-वस्तुवादी (Materialistic) दर्शन। भाववादी
दर्शन विचार या आत्मा जैसी बातों पर बल देते हैं, उन्हें प्राथमिक मानते
हैं। भाववादी दर्शन सृष्टि का कारण किसी दैवी, परम सत्ता को मानते हैं
- कोई ईश्वर-ब्रह्म, परम प्रत्यय आदि, किन्तु भौतिकवादी दर्शन
संसार का अपना वस्तुगत अस्तित्व मानते हैं और उसके मूल या कारण के रूप में किसी परम
सत्ता-ईश्वर या ब्रह्म आदि को नहीं मानते। मार्क्सवादी दर्शन का संबंध इसी भौतिकवाद
से है जिसे मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक वैज्ञानिक आधार प्रदान किया। मार्क्सवादी दर्शन
से संबंधित किताबों में आप भाववाद तथा द्वन्द्वात्मक-भौतिकवाद के बारे में विस्तार
से जान सकते हैं।
मार्क्स से पहले की विश्व भर की आलोचना या आलोचना-दृष्टियाँ
प्रधानत: भाववादी या प्रत्ययवादी दर्शन पर ही आधारित हैं। सम्पूर्ण भारतीय काव्य-शास्त्र
का आधार भी यही भाववादी दर्शन है। मार्क्स से पहले भी जब तब विश्व में और भारत में
भौतिकवादी विचार परम्परा की अभिव्यक्ति तथा दखल भी होती रही है, किन्तु मूलत: और मुख्यत: पश्चिम और भारत का सारा काव्य
शास्त्र भाववादी दार्शनिक दृष्टिकोण पर ही आधारित रहा है।
पहली बार मार्क्सवाद में भाववादी दर्शन का शास्त्रोक्त
तथा वैज्ञानिक तरीके से किया गया प्रतिवाद मिलता है। इसी प्रकार पहली बार मार्क्सवाद
पर आधारित आलोचना तथा साहित्य-चिन्तन में पहली बार भाववादी सौन्दर्य शास्त्र, आलोचना शास्त्र या काव्य से सर्वथा भिन्न प्रस्थान बिन्दु
मिलते हैं, मार्क्सवादी आलोचना, एक सर्वथा भिन्न दार्शनिक
दृष्टिकोण पर आधारित आलोचना है। इसी नाते अगर 'दूसरी परम्परा की आलोचना’ किसी को माना या कहा जा सकता है, वह मार्क्सवादी आलोचना ही है। शेष आलोचना पद्धतियाँ, दृष्टियाँ अलग-अलग बातों पर बल देते हुए भी अपने दार्शनिक
आधार पर एक ही भाववादी दर्शन की आलोचनाएँ हैं। वे इसी नाते पहली परम्परा की आलोचनाएँ
हैं। दूसरी परम्परा की आलोचना भाववाद के विपरीत भौतिकवादी दर्शन की जमीन पर विकसित
मार्क्सवादी आलोचना ही हो सकती है।
नन्द :- जब भी दूसरी परम्परा की बात आती है तो विवाद
नामवरजी की 'दूसरी परम्परा की खोज’ पुस्तक पर केन्द्रित हो
जाता है। इस सन्दर्भ में कुछ कहेंगे ?
डॉ. मिश्र:-वस्तुत: दूसरी परम्परा की बात शुरू होने का
एक इतिहास है। जब डॉ. नामवर सिंह की 'दूसरी परम्परा की खोज’ किताब प्रकाशित हुई तभी यह सवाल उठा। आचार्य शुक्ल के
विपरीत उन्होंने उसमें आचार्य द्विवेदी को दूसरी परम्परा का आलोचक कहा। आचार्य शुक्ल
को उन्होंने जो स्थापित, मान्य, चला आ रहा है, उससे जोड़ा और द्विवेदीजी को असहमति, अस्वीकार और स्थापित, मान्य या चले आ रहे के
अस्वीकार से संबद्ध किया। द्विवेदीजी का मानक कबीर को माना।
जब इस तरह आचार्य शुक्ल को एक और आचार्य द्विवेदी
को दूसरी परम्परा से उन्होंने जोड़ा तभी मन में यह बात आई कि ये दोनों आलोचक भिन्न
परम्पराओं के आलोचक नहीं वरन्ï एक ही परम्परा के आलोचक हैं। बावजूद इसके कि एक तुलसी
को वरीयता देता है, दूसरा कबीर को, दोनों की विश्व-दृष्टि, जीवन-दृष्टि एक ही है। एक ही परम्परा में रहते हुए भले
ही साहित्यिक मुद्दों पर उनके विचार भिन्न हों, उनकी विश्व-दृष्टि और जीवन-दृष्टि
में कोई अन्तर नहीं है।
तभी यह भी मन में आया कि, अगर दूसरी परम्परा की बात करनी ही है तो दूसरी परम्परा
वही हो सकती है जो बुनियादी तौर पर पहली से भिन्न दार्शनिक जमीन पर खड़ी हो। तभी यह
स्थापना सामने आई कि प्लेटो से लेकर अब तक का तथा भरत से लेकर अब तक का सारा पश्चिमी
और भारतीय-चिन्तन बुनियादी तौर पर प्रत्ययवादी दर्शन की जमीन से किया गया चिन्तन है।
बीच-बीच में कुछ अपवाद मिलते हैं। यदि दूसरी परम्परा के साहित्य चिंतन की बात की जाय
तो वह वस्तुवादी-भौतिकवादी दार्शनिक जमीन पर विकसित चिन्तन ही होगा और ऐसा साहित्य-चिंतन
या ऐसी आलोचना मार्क्सवादी आलोचना ही है।
नन्द :- मौटे तौर पहली और दूसरी आलोचना परम्परा में क्या
अन्तर है ? क्या पहली परम्परा की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो विकसित
होती हुई दूसरी परम्परा में भी पूरी शक्ति से जीवित हैं और विकसित भी हो रही हैं ? मतलब यह है कि पहली परम्परा में ऐसा कुछ था जिसे दूसरी
परम्परा ने विरासत के रूप में स्वीकार किया ?
डॉ. मिश्र:- के. दामोदरन
की एक किताब है - 'भारतीय चिन्तन परम्परा।' उसे पढ़ें। उन्होंने बताया है कि हमारी प्राचीन वैदिक-औपनिषदिक
परम्परा में किस तरह भौतिकवादी चिंतन के अनेक सूत्र हैं। इसके उपरांत उन्होंने बौद्ध-जैन
दर्शनों में वस्तुवादी-भौतिकवादी चिंतन के सूत्र बताए हैं जिनमें वैदिक परम्परा का
नकार है। लोकायत मत भारत में विकसित पहला भारतीय दार्शनिक चिंतन है जो विशुद्धत: भौतिकवादी
है यद्यपि उसका भौतिकवाद यांत्रिक भौतिकवाद है। फिर भी वह भौतिकवादी दर्शन तो है ही।
इसी प्रकार पश्चिम में भाववादी दर्शनों के साथ भौतिकवादी दार्शनिक चिन्तन की प्रारम्भ
से ही परम्परा रही है। हेगेल भाववादी थे-उन्हीं के तमाम सूत्र लेकर मार्क्स ने अपने
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को रूप दिया। Dialectics तो हेगेल की है
जिसका उपयोग मार्क्स ने अपने दर्शन में किया।
कहने का मतलब है-समूचे विश्व में दर्शन या चिंतन
की दो परम्पराएँ रही हैं-भाववादी और भौतिकवादी। भाववादी परम्परा को राजसत्ता का संरक्षण
मिला और भौतिकवादी परम्परा को दबाया गया। दमन किया गया। यदि पूर्ववर्ती परम्परा में
भौतिकवादी चिंतन नहीं होता तो मार्क्स अपना दर्शन नहीं खड़ा कर सकते थे।
सारा काव्य शास्त्र-वह भारतीय हो या पश्चिमी, दर्शन की इन्हीं दो जमीनों पर अवस्थित है। साहित्य-चिन्तन, काव्य-चिन्तन या आलोचना में भौतिकवादी दर्शन की जमीन
को पुष्ट वैज्ञानिक आधार मार्क्सवादी आलोचना में मिला-वह यहाँ की हो या बाहर की।
इसी नाते मार्क्सवादी आलोचना को दर्शन की दूसरी
परम्परा-अर्थात् भौतिकवादी दर्शन की परम्परा की आलोचना कहा गया है। अब
समाजशास्त्रीय, जनवादी आदि आलोचना सरणियों में यदि बुनियादी दृष्टि भौतिकवादी
दृष्टि है, तो वे भी दर्शन की दूसरी परम्परा आलोचना कही जाएंगी।
जहाँ तक मार्क्सवादी आलोचना का अपनी जमीन से
जुडऩे का सवाल है, मार्क्सवाद आलोचना में मार्क्सवाद की बुनियादी स्थापनाओं
के साथ अपनी परम्परा में जो कुछ प्रगतिशील है, दैवी व्याख्याओं से भिन्न
समाज तथा जीवन की वस्तुगत सत्ता को स्वीकार करते हुए कहा गया है, वह सब मार्क्सवादी आलोचना की विरासत है। आचार्य शुक्ल
जब कहते हैं कि लोक के भीतर ही कविता या किसी कला का विकास या जन्म होता है, तो वे मार्क्सवाद की स्थापनाओं के एकदम निकट आकर बात
करते हैं, इसी नाते बुनियादी तौर पर भाववादी विश्वदृष्टि के होते
हुए भी, मार्क्सवादियों में मान्य है। समाज तथा जीवन को ठोस वस्तुगत
स्वीकृति के परिपे्रक्ष्य में की जाने वाली कोई भी बात हमें स्वीकार है।
नन्द :- डॉ. साहब, एक बार डॉ. नन्द किशोर
नवल ने मेरे प्रश्न के उत्तर में कहा कि 'डॉ. शर्मा मार्क्सवादी
हैं पर उनका मार्क्सवाद विकसनशील न होकर डागमेटिज्म का शिकार है। आप डॉ. नवल के आरोप से कहाँ तक सहमत हैं
?
डॉ. मिश्र:- रामविलास शर्मा
का मार्क्सवाद विकासशील है या रूढ़ (डाग्मेटिस्ट) यह तो अपना-अपना मत है। जिस प्रकार
भाववादी विचारकों में-उदारतावादी और कट्टरतावादी हैं, उसी प्रकार मार्क्सवाद में भी उदारतावादी और कट्टरतावादी
हैं। यह तो बहस और विचार का मुद्दा है।
नन्द :- बस एक अन्तिम प्रश्न डॉ. साहब, इतना तो स्पष्ट हो चुका है कि आप रामविलासजी के सारे
चिन्तन को दूसरी परम्परा के केन्द्र में ही रखते हैं। अब यह भी बताइये कि क्या रामविलासजी
ही इस दूसरी-परम्परा के शलाका-पुरूष हैं ?
डॉ. मिश्र:- अपनी सीमाओं, अंतर्विरोधों तथा तमाम सारी आलोचनागत असहमतियों के बावजूद
डॉ. रामविलास शर्मा निश्चय ही 'आलोचना की दूसरी परम्परा’ के शलाका-पुरूष हैं। इस बात से कोई मतभेद नहीं हो सकता।
नन्द:- बहुत-बहुत धन्यवाद डॉ. साहब। आपने मुझे अपनी अपरिमित
व्यस्तताओं के भीतर से जो समय दिया है। वह मेरे लिए और मेरे शोध के लिए अत्यन्त मूल्यवान
है। हिन्दी-आलोचना की दूसरी परम्परा को लेकर मेरे मन में जो शंकाएँ थी, जो संशय था, आपसे बातचीत करके उनका
समाधान हो गया है। पुन: आपका बहुत आभारी हँ।
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