कार्ल मार्क्स की जीवनी.... और फिर त्रासदियाँ


जहाँ अन्य सभी विचार और सिद्धांत स्वार्थवश स्थापित किया गए थे,
 सत्ता और पुरोहित वर्ग के निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए 
उनका अनुशरण करना सब के लिए बाध्यता थी, 
वहीँ कार्ल मार्क्स के सिद्धांत नितांत 
निस्वार्थ भाव से प्रेरित 
सब के हित के लिए थे. 
अन्याय, शोषण और अज्ञान से लड़कर 
उन्होंने दुनिया के सर्वहारा वर्ग को रोशनी दिखाई.
उनके सिद्धांतों और विचारों से तो हम सब परिचित हैं ही, 
पर सर्वहारा वर्ग के क्रांतिकारी दर्शन के जनक मार्क्स का
वैयक्तिक जीवन भी भीषण त्रासदियों से आक्रांत था. 
शासक वर्ग, पुरोहित वर्ग और पूँजीपतियों से 
ताउम्र संघर्ष करने वाले मार्क्स को अपने 
और अपने परिवार के स्वास्थ्य के लिए भी 
खूब संघर्ष करना पड़ा था. 
मार्क्स की जीवनी के इस अंश से हम 
उनके जीवन की इन परिस्तिथियों को समझ सकते है.

नन्दकिशोर नीलम 


इस जीवनी का अंतिम अंश- ‘और फिर त्रासदियाँ’ आप सब के लिए.....

.... और फिर त्रासदियाँ

भागीरथ बौद्धिक परिश्रम और भीषण आर्थिक अभावों ने कम उम्र में ही मार्क्स के शारीर को निश्शक्त कर दिया.
१८७४ में उनका यकृत-रोग बढ़ गया. डाक्टरों की सलाह पर वह टुस्सी के साथ कार्ल्सबाद (कार्लोवी वारी) नामक स्वास्थ्य विहार में गए. इसके बाद १८७५ और १८७६ में भी वह स्वास्थ्य लाभ पाने वाहन गए. इससे उनकी तबियत कुछ संभली. लेकिन समाजवादियों के खिलाफ असाधारण कानून लागू हो जाने के कारण मार्क्स के लिए कार्ल्सबाद की यात्रा खतरनाक हो गयी- प्रशा और आस्ट्रिया की सरकारें वहां उन्हें परेशान कर सकती थीं. सो, मार्क्स अब कार्ल्सबाद नहीं जा सकते थे, और स्वयं उनके शब्दों में उनका स्वास्थ्य इसके बाद कभी भी संतोषजनक नहीं रहा.
मार्क्स की पत्नी की बीमारी उनके लिए भयंकर आघात थी. अक्टूबर १८८० में डाक्टरों ने उन्हें जिगर का कैंसर बताया. जुलाई १८८१ में पत्नी के अनुरोध पर मार्क्स उन्हें नातियों से मिलाने अर्जात्यो ले गए.
इसके दो-तीन महीने बाद जेनी बिस्तर से उठने लायक स्तिथि में न रहीं. तभी मार्क्स को भी प्लूराइटस और निमोनिया हो गया. डाक्टर उनके जीवन के लिए आशंकित हो उठे. मार्क्स के लिए रोग से भी अधिक भयंकर यातना यह थी कि बगल के कमरे में उनकी पत्नी अंतिम सांसे गिन रही थी. एलेओनोर ने अपने संस्मरणों में लिखा: वह सुबह मैं कभी नहीं भूलूंगी जब पिता जी के शारीर में इतनी इतनी ताकत आई कि वह उठकर माँ के कमरे में जा सके. दोनों मिलकर फिर से जवान हो गए- संग-संग जीवन में पदार्पण कर रहे प्रेमी युवक-युवती ही थे वे, न कि रोग से टूटा वृद्ध और मरणासन्न वृद्धा, जो सदा के लिए एक दूसरे से विदा ले रहे थे.
२ दिसंबर १८८१ को जेनी इस संसार में नहीं रहीं. मार्क्स इतने कमजोर थे और इस सदमे से इतने स्तब्ध कि पत्नी की अंतिम क्रिया में भाग लेने भी ना जा सके. जेनी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए एंगेल्स ने लिखा कि वह अपने पति के भाग्य, उनके प्रयत्नों और संघर्ष के दुःख-सुख को बांटती मात्र नहीं थीं, बल्कि पूरी चेतना और प्रबल उमंग के साथ उनके सभी कामों में सक्रिय भाग लेती थी
मार्क्स को आशा थी कि वाइट द्वीप पर एलेओनोर के साथ कुछ समय तक विश्राम पाकर वह फिर से अपने अध्ययन-कार्य में जुट सकेंगे. लेकिन डाक्टरों को दर था कि लंदन के वसन्तकालीन मौसम का उनके स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है. उनका आग्रह था कि मार्क्स कहीं दक्षिण में चले जाएँ. उनकी राय थी कि अल्जीरिया जाना सबसे अच्छा रहेगा. फ़रवरी १८८२ के आरंभ में मार्क्स एक सप्ताह के लिए अर्जात्यो में रूककर अल्जीरिया को रवाना हुए. लेकिन रास्ते में उन्हें सर्दी लग गयी. अल्जीरिया में आशा के विपरीत मौसम ठंडा था, बारिशें हो रही थीं और ठंडी हवाएं चल रही थी. इस सब का नतीजा यह हुआ कि मार्क्स का ब्रोंकाइटस उग्र हो गया और उन्हें फिर से प्लूराइटस हो गया. अल्जीरिया में तेज गर्मी शुरू होने से पहले ही मई के आरम्भ में मार्क्स वहां से चल दिए. एक महीना वह मोंटे-कार्लो में रहे, जो उनके शब्दों में ऊँचे घरानों के निठल्लों और दुस्साहसियों का अड्डा था. ८ जून से २२ अगस्त तक मार्क्स बेटी जेनी और नाती-नातिनों के साथ अर्जात्यो में रहे. इसके बाद डाक्टरों की सलाह पर वह मंझली बेटी लाऊरा के साथ स्विट्जरलैंड गए और एक महीने तक वहां वेव में रहे. सर्वत्र ही मौसम उनके लिए प्रतिकूल रहा. परन्तु फिर भी स्वास्थ्य कुछ सुधरा, सो डाक्टरों ने उन्हें इंग्लैण्ड के दक्षिण तट पर जाड़ा काटने की अनुमति दे दी. अक्टूबर के अंत में मार्क्स वाइट द्वीप पर चले गए जहाँ अध्ययन और शोध-कार्य करने लगे.
जनवरी के आरम्भ में मार्क्स को जेनी बीमार पड़ने की खबर मिली और १२ जनवरी को एलेओनोर ने उसकी मृत्यु का भयावह समाचार पिता को सुनाया. ३८ वर्ष की आयु में बड़ी बेटी का, चार चहेते नातियों और एक नातिन की माँ का चल बसना मार्क्स के लिए असह्य आघात था. दुःख के मारे वह लंदन लौट आये. फ़रवरी में डाक्टरों ने उनके फेफड़े में विद्रधि (फोड़ा) पायी. कमजोरी बड़ी तेजी से बढ़ने लगी.
१४ मार्च १८८३ को मार्क्स नहीं रहे.
अगले दिन एंगेल्स ने बेकर को लिखा: कल दिन के पौने तीन बजे दो मिनट के लिए उन्हें छोड़कर बाहर गए और लौटने पर उन्हें आरामकुर्सी में चिर निद्रा में विलीन पाया. हमारी पार्टी के सबसे महान विचारक की चिंतन-क्रिया बंद हो गयी है, आज तक मैंने जो सबसे उदात्त ह्रदय देखा उसकी धड़कन रुक गयी है.
एंगेल्स के लिए परम मित्र की मृत्यु भीषण प्रहार थी, पर फिर भी एक विचार से उन्हें कुछ सांत्वना मिल रही थी जो उन्होंने जोर्गे को अपने पत्र में व्यक्त किया: डाक्टर की निपुणता उन्हें निष्क्रिय जीवन के कुछ वर्ष एक लाचार प्राणी का जीवन प्रदान कर सकती थी और डाक्टरों की निपुणता के श्रेय से वह तत्काल न मरते, बल्कि रत्ती-रत्ती करके मरते. लेकिन हमारे मार्क्स को यह सब कभी सहन नहीं होता. अपने सामने सभी अपूर्ण कृतियों के साथ जीना, उन्हें पूरा करने की इच्छा से तरसना और उन्हें पूरा न कर पाना – यह उनके लिए उस शांतिपूर्ण मृत्यु से हजार गुना कटु होता, जिसको वह प्राप्त हो गए.
इस त्रासदी के बारे में एंगेल्स ने लिखा : मानव-जाति एक रत्न से वंचित हो गयी है और वह भी हमारे एक युग के एक महानतम रत्न से.
१७ मार्च १८८३ को, शनिवार के दिन मार्क्स को लंदन के हाईगेट कब्रिस्तान में दफनाया गया, उसी स्थान पर जहाँ उनकी पत्नी ने अंतिम शरण पाई थी. अपने भावप्रवण भाषण में एंगेल्स ने मार्क्स के अपूर्व वैज्ञानिक पराक्रम का, विशेषत: उनकी दो प्रमुख, सच्चे अर्थों में महान खोजों- मानवजाति के इतिहास के विकास के नियम तथा बेशी मूल्य के सिद्धांत- का उल्लेख किया.
एंगेल्स ने मार्क्स को एक मेंधावी चिन्तक ही नहीं, महान क्रन्तिकारी भी कहा. संघर्ष उनका स्वाभाविक परिवेश था.अपने महान शिक्षक और परम मित्र के समाधी-स्थल पर बोलते हुए एंगेल्स के अंतिम शब्द थे: उनका नाम और उनका काम उगों तक बने रहेंगे!

कार्ल मार्क्स: एक जीवनी. -ये. स्तेपानोवा; अनुवादक: योगेन्द्र नागपाल, प्रगति प्रकाशन मास्को. से साभार ...


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