मौलिक अधिकारों के संघर्ष की तैयारी .... रामनाथ शिवेंद्र का उपन्यास: तीसरा रास्ता




(‘हंस’ के फ़रवरी २००८ अंक में प्रकाशित एक समीक्षा)

एन.जी.ओ. की भूमिका पर अनगिनत सवाल उठते रहे हैं, एन.जी.ओ. ने अपनी कार्यप्रणाली और समग्र व्यवहार से बराबर ऐसे हालात पैदा किए हैं जिससे ऐसी तमाम धारणाएं पुष्ट और प्रमाणित हुई हैं कि इनकी भूमिका विकास विरोधी दलालों की तरह है. निरीह जनता के हिस्से की कल्याणकारी योजनाओं की अकूत राशि इनके पंचतारा ऐशो-आराम पर खर्च कर दी जाती है. बाड़ का काम खेत की रखवाली करना होता है, पर यदि बाड़ ही खेत खाने लगे तो! संभवत: एन.जी.ओज की भूमिका पर अपनी रचनात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले रामनाथ शिवेन्द्र के महत्त्वपूर्ण उपन्यास 'तीसरा रास्तामें यही संशय उमड़ता-घुमड़ता रहता है. 'मानवाधिकार जन समितिनाम की एन.जी.ओ. का कर्ताधर्ता डी. बी. जैसा शातिर व्यक्ति, जिसके हाथ में समाज को बदलने की ताकत और साधन दोनों हैं, शोषक और भक्षक की भूमिका में है. समाज की बेहतरी के लिए प्रयुक्त किए जाने वाले संसाधनों को वह समाज के विनाश के, समाज की चेतना को कुंद करने के हथियारों के रूप में तब्दील करने में माहिर है. वह कहता है ''क्रांति एक छलावा है....’’ (तीसरा रास्ता, पृष्ठ -21) इसलिए क्रांति को अवरुद्घ करने के तमाम उपाय करता है. डी. बी. राजनीतिक समीकरण बिठाने में माहिर है। उसके मंसूबों को साकार करने और उसके अटके कामों को करवाने के लिए कोई न कोई स्त्री हमेशा देह में परिवर्तित हो जाने को तत्पर रहती है. जो उसका विरोध करती है उसे वह बर्बाद कर देता है. जटिल जीवन पद्घति, बाजारीकरण और घिचपिच सौंन्दर्यबोध से स्त्री का संपूर्ण व्यक्तित्व किस तरह संचालित होता है इसका ज्वलंत उदाहरण है डी.बी. की सहायक मधु निहलानी और शालिनी. वस्तुत: यह उपन्यास समाज परिवर्तन की दिशा में स्त्री की भूमिका के परस्पर विरोधी आयामों की गहरी पड़ताल करके उसकी सही और सकारात्मक भूमिका और हस्तक्षेप को रेखांकित करता है. यही वजह है कि स्त्री जीवन के दो घनघोर विरोधी स्वरूपों पर रामनाथ शिवेन्द्र ने सुधा व अस्मिता तथा मधु निहलानी व शालिनी के माध्यम से विचार किया है.

यह उपन्यास सोनपुर जनपद की आम जनता के माध्यम से आज के असंख्य शोषितों,  पीडि़तों,  दलितों,  दमितों और वंचितों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए किए जा रहे सतत संघर्ष की कथा कहता है. सोनपुर के ये लोग अपने जल, जंगल और जमीन के हक के लिए लगातार ठगे जा रहे हैं. शासन इनके प्रति निष्क्रिय और उदासीन है, लगभग जनविरोधी और विकास विरोधी भूमिका में. वन विभाग इन पर झूठे मुकदमें दायर करवाकर क्रूर हत्यारे की तरह व्यवहार करता है और इनके मौलिक अधिकारों की हिफाजत की लड़ाई के लिए देशी-विदेशी फंडरों से करोड़ों रुपये डकारने वाले एन.जी.ओ. इनके सामाजिक और मौलिक अधिकारों के सबसे बड़े अपहर्ता हैं. उपन्यासकार का यह मानना है कि ''आर्थिक उदारवाद तथा एन.जी.ओ. संस्कृति ने आन्दोलनों के चरित्र की हत्या कर दी है.....’’ (पृष्ठ- 224) ''एन.जी.ओ. वाले बेकारी व बेरोजगारी का लाभ उठाते हैं तथा रुपया कमाने का व्यापार करते हैं, .....आधे से भी कम मजूरी पर कार्यकर्ताओं का शोषण करते हैं ...’’ (पृष्ठ- 198)  समाज बदल के व्यापक उद्देश्य को छोड़कर ''ये एन.जी.ओ. वाले गरीबी, भुखमरी, बीमारी का सौदा करते हैं तथा अमेरिका व इंगलैंड को बेचते हैं.....’’ (वही)

इस उपन्यास की एक महत्त्वपूर्ण परिघटना है सुधा के नेतृत्त्व में सोनपुर में बंदी का निर्माण जो वास्तव में आज के समय में जनभागीदारी से जल संरक्षण के स्रोतों को सिरजने की पहल के लिए प्रेरित करता है. दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सरकार द्वारा बड़े बांध बनाने के लिए अपनी जमीन से उजाड़ दिए जाने वाले निरीह आदिवासियों के विस्थापन को रोकने तथा बड़े बांध के विकल्प में छोटी-छोटी बंधियां बना कर प्राकृतिक रूप से जल संरक्षण करने से जल, जंगल और जमीन रूपी आम जनता के मौलिक अधिकारों का हनन भी नहीं होगा और उन्हें बार-बार उजडऩे से निजात भी मिलेगी. पर वन विभाग बंदी निर्माण से खुश नहीं है. उसके धन और वर्चस्व का सारा खेल बड़े बांध खड़े होने में है.

वन विभाग के पैमाइशी फीते का जाल इतना गहरा और बड़ा होता है कि आम आदमी और उसके जीवन जीने के संसाधन भी इसी जाल में उलझकर रह जाते हैं. प्रतिरोध करने पर वन विभाग का दमन-चक्र कू्ररता में बदल जाता है। फिर पुलिस, नेता और स्वयंसेवी संगठनों के भ्रष्ट आका आपसी साठ-गांठ से जन-प्रतिरोध की धार को कुंद करते हैं. उपन्यास में सोनपुर जनपद के निरीह लोगों को रेंजर की हत्या के आरोप में फंसाना ऐसी ही साठ-गांठ का परिणाम है. सुधा, विजयकीर्ति भाई,  निखिलदा और विनय जैसे लोगों की बड़ी चिंता यह है कि इन्हें किस तरह उजडऩे से बचाया जाए और विस्थापित किए जाने वाले लोगों के बीच जाकर उन्हें आदिवासियों के मौलिक स्वत्त्व के संघर्ष के लिए कैसे तैयार किया जाए? लेकिन अनेकों बार उजड़ चुके और शासन और पुलिस की पाशविकता को भोग चुके लोग डरे हुए हैं. गांव का एक सत्तर वर्षीय वृद्घ सुधा और विनय को इस बर्बरता के बारे में बताते हुए लगभग पागलपन की हद तक पहुंच चुकी निराशा में करमा गा-गाकर नाचने लगता है. (पृष्ठ- 222) यह बुजुर्ग आदिवासी बार-बार के विस्थापन को अपनी नियति मान चुका है. जिस डर,  हताशा और निराशा का यह शिकार है वह आज पूरे भारतीय समाज पर हावी है. पर इसी गांव के कुछ युवा लोग इस नियति को बदल कर अपने जीने के अधिकार को पाना चाहते हैं. इनमें अथाह जोश है और प्रतिरोध की क्षमता भी. ये अब मरने-मारने पर उतारु हैं.

इस उपन्यास का शीर्षक 'तीसरा रास्ता देखकर ऐसा लगता है कि राजनीति में तीसरे विकल्प की तरह उपन्यासकार भी एक ऐसा तीसरा रास्ता बनाने या सुझाने की पहल करेगा जो कायम सत्ता और विकास विरोधी स्वयं सेवी संगठनों की लूट से परे होगा. जिस तीसरे रास्ते का खुलासा रामनाथ शिवेन्द्र उपन्यास के अंतिम खण्ड 'तीसरा रास्ता में करते हैं वह चौंकाता है. आरंभ में एक क्रांतिकारी कॉमरेड रहे दीपेश भट्टाचार्य (डी.बी.) का रमेशरा बनकर हत्या करवाना, राजनीति करना, बाद में एन.जी.ओ. चलाना और अपने भ्रष्ट-व्यभिचारी चरित्र को छिपाने के लिए अंतत: आध्यात्मिक गुरु बन जाना ही क्या अब तीसरा विकल्प या तीसरा रास्ता बचा है?  क्या सचमुच आज के तथाकथित कॉमरेडों का दूसरा पड़ाव एन.जी.ओ. और तीसरा पड़ाव अध्यात्म है? क्या वास्तव में आज के इस विकट दौर में जनपक्षधर मूल्यों के प्रति लोगों का रुझान कम हो रहा है, क्या संघर्ष और प्रतिरोधी चेतना पर 'धन और 'अध्यात्म ने आधिपत्य कायम कर लिया है,  क्या अमरीकी धनकुबेरों का प्रतिरोधी ताकतों को मनोवैज्ञानिक रूप से अपह्रत करने का षडय़ंत्र फलीभूत हो चुका है? ऐसे कई प्रश्नों से यह उपन्यास विचलित करता है. अध्यात्म वास्तव में इस उपन्यास की जय है या पराजय इसे समझने के लिए थोड़ा गंभीरता से विचार करना पड़ेगा.

डी.बी. का सब तरफ से हार कर अपने पुराने आध्यात्मिक गुरु की शरण में चले जाना और अंत में अपने गुरु की जगह लेकर भगवा धारण कर लेना आज के समय की बड़ी सच्चाई है. आध्यात्मिक गुरुओं का प्रभामण्डल लगातार फैल रहा है. कई गुरुओं और बापुओं के यौन-दुराचारों का पर्दाफाश होने के बाद भी ये अपना प्रभामण्डल विस्तृत करने में कामयाब हो रहे हैं.

आज जिस तरह की घटनाएं हमारे वैचारिक समाज में घट रही हैं उन्हें देखते हुए तो यही कहा जा सकता है कि रामनाथ शिवेन्द्र आगत के भयावह हालातों की पूर्व सूचना दे रहे हैं. प्रगतिशील और जनपक्षधरता के अगुवाओं का इन दिनों जातियों, संघियों और सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों के चंगुल में फंसना या स्वेच्छा से उनके आतिथ्य और धन को स्वीकार करना कहीं वही 'तीसरा रास्ता तो नहीं जिसकी ओर रामनाथ शिवेन्द्र ने संकेत किया है? बहरहाल आज के वैज्ञानिक युग में अध्यात्म की दुंदुभी जिस ऊंचे स्वर में कान फोड़ रही है उसे देखते हुए 'तीसरे रास्ते का यह घातक संकेत हमें सावधान करता है. सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अतिवाद के इस कठिन समय में बड़े-बड़े अपराधियों का अंतिम ठौर केवल अध्यात्म( ?) ही हो सकता है जहां न तर्क चलता है न कानून. यहां तमाम धार्मिक और कठमुल्ली ताकतें उनके जयकारे और संरक्षण के लिए तत्पर हैं. इस तथ्य की सच्चाई को हम पिछले सालों में देख चुके हैं.

इस उपन्यास के माध्यम से रामनाथ शिवेन्द्र ने घटित हो रही सच्चाइयों पर और बढ़ती संवेदनहीनता पर बहुत कुछ कहने की कोशिश की है। इतना कुछ कहने के प्रयास में यह उपन्यास कहन और पठनीयता की सीमाओं का शिकार भी हुआ है। कहन के 'गंवईपन के कारण उत्पन्न लिंग, वचन और कारकों की त्रुटियां मन को उचाटती हैं,  विचारों की ऊभ-चूभ और अत्यधिक कथा विस्तार शिथिलता लाता है। ऐसी तमाम सीमाओं के बावजूद यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि यह उपन्यास व्यापक सामाजिक सरोकारों को बड़े पैमाने पर बहस के बीच लाता है।

संपर्क: 277, 'कनुप्रिया, नेशनल गर्ल्स कॉलेज के सामने,  विजय नगर, अलवर (राज.)

पुस्तक : तीसरा रास्ता (उपन्यास)
लेखक : रामनाथ शिवेन्द्र
प्रकाशक : पिल्ग्रिम्स पब्लिशिंगवाराणसी- 221010
मूल्य  : 225/-
                                   

टिप्पणियाँ

  1. उपन्यास नहीं पढ़ा है, पर उसकी कथावस्तु से जितना परिचय यहां मिलता है, उससे लगता है कि तेज़ी से फैल रही जिस विष-बेल पर यह उपन्यास केंद्रित है, उपन्यासकार को आंशिक सफलता ही मिली है. यह भी संभव है कि उसका मक़सद इतना भर उद्घाटित करना ही रहा हो. अगर यह तीसरा रास्ता है तो दूसरा रास्ता कौनसा है. एनजीओज़ की भूमिका विकास-विरोध की ही नहीं है, बल्कि इनका गठन ही साम्राज्यवादी देशों द्वारा इसलिए किया गया है कि ये जनता की समाज-परिवर्तन-कामना को खुट्टल बना दें. यह अकारण नहीं है कि इनकी नज़र सभी देशों में असंतुष्ट, महत्वकांक्षी एवं बचकाने उग्रवाद के शिकार लोगों पर ही पड़ी. ऐसे लोग चरम क्रांतिकारी दिखते हैं. अच्छी समीक्षा लिखी है, पर एनजीओज़ की भूमिका को कुछ और विस्तार से सामने लाने की ज़रूरत फिर भी बची रह गई है. कुल मिलाकर समीक्षा ध्यान देने योग्य नुक्तों की ओर इशारा तो करती ही है, जो अपने आप में कम नहीं है.

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