धर्मान्तरण के लिए क्या केवल ईसाई जिम्मेदार हैं?




३ सितम्बर, २०११ के जनसत्ता के पृष्ठ ६ पर. 

मैंने इसके विरोध में जनसत्ता में अपना मत भेजा 
जिसे नहीं छापा गया ..
आज अनायास यह फ़ाइल हाथ आ गयी ... 
संशोधित कर आप सब के लिए दे रहा हूँ ..



३ सितम्बर, २०११ के जनसत्ता के पृष्ठ ६ पर शंकर शरण जी की सेक्युलरिज्म की परिभाषा को लेकर उपजी चिंताओं से वाकीफ़ हुआ. हिंदुत्व, उसके धर्म ग्रंथों और साधु-बाबाओं के प्रति उनकी नतमस्तकी आस्था का भी ज्ञान हुआ. उनके द्वारा लगाये गए तमाम आरोप-प्रत्यारोप और पक्ष-विपक्ष पर बहस की जबरदस्त गुंजाईश है, जिस पर निश्चित रूप से अन्य गुणीजन विचार करेंगे पर मेरा मन जिस बात पर अटका, वह है- धर्मान्तरण से सम्बंधित! 


शंकर शरण जी ने लिखा है- “यहाँ अवैध धर्मान्तरण कराने वाले विदेशी ईसाई को राष्ट्रीय सम्मान दिया जाता है, जबकि अपने धर्म में रहने की अपील करने वाले हिंदू समाजसेवी को साम्प्रदायिक कहकर लांछित किया जाता है.” यहाँ प्रश्न है कि धर्मान्तरण यदि अवैध है तो इसके लिए जिम्मेदार क्या केवल ‘विदेशी ईसाई’ ही है या फिर आपका तथाकथित ‘हिंदू समाजसेवी’ भी? धर्मान्तरण अवैध क्यों है? हिंदू समाज की गल-घोंटू जकडबंदी से मुक्त होना या किसी को मुक्त कराना क्या अपराध है? और अपने धर्म में रहने की अपील करने वाले, सदियों से दलितों को अपने अमानवीय अत्याचारों से आक्रांत करने वाले हिंदू किस तरह समाजसेवी हैं? 

आप जिस महान हिंदू धर्म की दुहाई दे रहे हैं उसके कौन लोग धर्मान्तरण कर रहे हैं और ये लोग धर्मान्तरण करने को क्यों मजबूर हैं? वे कौनसे कारण हैं जिनकी वजह से ये लोग धर्मान्तरण कर रहे हैं? इसकी जड़ में कहीं आपका मनुवादी आतंक तो नहीं? वास्तविक अपराधी कहीं ‘अपने धर्म में रहने की अपील करने वाला हिंदू समाजसेवी’ ही तो नहीं? 

जिस मनुवादी सोच ने हिंदू समाज के जातिगत ढांचे को निर्मित किया है क्या उसने स्वयं धर्मान्तरण के लिए पर्याप्त ‘स्पेस’ नहीं छोड़ दिया है? जिस तरह की अमानवीय क्रूरता, असमानता, असुरक्षा और शुद्र्ता मनुवादी सोच ने पैदा की है क्या वह स्वयं इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? जिस क्रूर जातिगत ढांचे में इस देश के बहुतायत को मंदिर में प्रवेश का अधिकार न हो, सड़क पर चलने का अधिकार न हो, कुए-तालाब से पानी भरने का अधिकार न हो, सामाजिक उत्सव मानाने का अधिकार न हो, विवाह में घोड़ी पर बैठने का अधिकार न हो, ब्राह्मणों और ठाकुरों के घरों से सामने से गुजरने का अधिकार न हो, वो क्यों न ऐसे घिनौने हिंदुत्व की निर्मम बैडीयां काट कर स्वाधीन हो जाये? जिनके संघर्ष, प्रतिरोध और हक को कुचलने के लिए उनकी बस्तियां की बस्तियां जलाई जाती हों, सामूहिक नरसंहार किये जाते हों और उनके आत्मबल को तोडने के लिए उनकी बहु-बेटियों को हवस का शिकार बना कर, डायन साबित करके नंगा करके गाँव में घुमा-घुमा कर मारा जाता हो, वो लोग क्यों न ऐसे घिनौने हिंदुत्व से मुक्त हों?

अपने जिन्दा रहने और समान रूप से विकास करने के मौलिक अधिकार का इस्तेमाल करने का अधिकार सब को है, अगर जिन्दा रहने और समान रूप से विकास करने के मौलिक अधिकार का हनन कोई धर्म करता है तो कोई क्यों न ऐसे धर्म को ठोकर मारे? 

आप जिस हिंदुत्व की महानता का बखान कर रहे हैं उसकी क्रूरता का आलम यह है कि आज भी न्यायलय के दलित न्यायाधीश के चेंबर को पवित्र करने के लिए गंगा जल से धुलवाया जाता है! जब दलित न्यायाधीश का यह हश्र है तो रिरीयाती-घिसटती आम दलित जनता का क्या होगा? अगर ऐसी क्रूरता से आतंकित होकर कोई अपना धर्म बदलता है तो इसके लिए ‘विदेशी ईसाई’ नहीं, ‘हिंदू समाजसेवी’ जिम्मेदार है. और ऐसे में यदि उसे साम्प्रदायिक कहा जाये तो क्या गलत है? 

श्रद्धा किस हद तक अंधी हो जाती है यह धर्मान्तरण के लिए केवल ईसाईयों को जिम्मेदार ठहराकर शंकर शरण जी ने साबित कर दिया है. और जिस ‘हिंदू समाजसेवी’ को साम्प्रदायिक कहने से उनको पीड़ा है, सच में शंकर शरण जी की सोच भी यहाँ धर्मान्तरण के लिए केवल ईसाईयों को जिम्मेदार ठहराकर अपने साम्प्रदायिक मंसूबों को उजागर होने से नहीं रोक पाई है.


नन्दकिशोर नीलम, 



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

साहित्य रचना: विचार और विचारधारा: लेखकीय प्रतिबद्धता के प्रश्न

महादेवी वर्मा की काव्यानुभूति का सच

जरूर लौटेगी गौरैया....