हिंदी कहानी पर यूँ ही चलते-चलते .....



अपने समय की तमाम जटिलताओं और क्रूरताओं को अपने कहन के केन्द्र में लाने के बावजूद समकालीन कहानी ने अपने को अधिक संवेदनशील और मानवीय बनाये रखने की भरसक कोशिश की है। समय ने यद्यपि उसके संपूर्ण रचाव को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही रूपों में झकझोरा है, फिर भी उसने अपने को अधिक अपनापे और संप्रेषण का विकल्प बनाये रखा है। इस समय में ध्वंस और सृजन ने पूरी सामथ्र्य से पाठक के चित्त और सर्जक की चेतना, दोनों को प्रभावित किया हैं। आज वैश्वीकरण के मकडज़ाल में पूरा देश उलझकर अपना खून चुसवाने को विवश है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की फैलायी मृगतृष्णा के मायाजाल में उलझकर वह हांफ रहा है। (अमेरिका की आर्थिक मंदी के बाद) देशी धन कुबेर लालों और महत्त्वाकांक्षी कैरियरिस्टों की लखटकिया नौकरियां समाप्त और खतरे में हैं।  'सेज' और 'बूट' की वजह से विस्थापित किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। धार्मिक उन्मादों का अंतहीन सिलसिला और मानवीय शोषण के अनेक कुचक्र हर दिन नये लिबास में, नई ताकत से प्रकट हो रहे हैं। इतिहास, विचार, कला, साहित्य और संस्कृति को 'अंध-धार्मिक और सांप्रदायिक' आभूषणों से लकदक किया जा रहा है। ऐसे क्रूर, भयानक और चुनौतीपूर्ण समय में हिन्दी के समकालीन कहानीकार अपनी रचनात्मक छटपटाहट के भीतर से मनुष्य की बहुविध मुक्ति की भूमिका तय करने का प्रयत्न कर रहे हैं।

आज की कहानियां वर्गांतरण की प्रक्रिया को अपने तरीके से व्याख्यायित करती हैं। पाठक प्राय: हर कहानी में वर्गबद्ध सामाजिक ढांचे को देख सकता है और एक वर्ग से दूसरे वर्ग में संतरण करने की जद्ïदोजहद और द्वंद्वात्मक मानसिकता भी देख सकता है। भारतीय मध्यवर्ग की यह विंडबना ही कहिए कि वह ज्यादातर उच्च वर्ग में अपने को शामिल करने की होड़ में रहता है। ये सभी बुर्जुआ मानसिकता के गुलाम, घनघोर कैरियरिस्ट हैं। इनमें साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी भी हैं। लंबी बहसें, संघर्ष, क्रांति, भूख इनके लिए सब फैशन है। इनकी कंडीशनिंग तो वास्तव में पूंजी और बाजार की चकाचौंध से हुई है। माक्र्सवाद की तमाम बहसों से ये 'डी क्लास' नहीं होते, डी क्लास होने की (वर्गांतरण की) प्रक्रिया से बचने का तरीका ढूढंते हैं। 'इनकी न$जर बा$जार, भूमण्डलीकरण, उदारवाद में अपनी, सिर्फ अपनी जगह तलाशनें तक केंद्रित होने लगी है।'

समकालीन कहानी ने दिखाया है कि वैश्वीकरण और विश्वग्राम की अंधी दौड़ में मनुष्य एक 'उत्पाद' में तब्दील हो गया है। उसके स्वार्थी और कुण्ठित जीवन-बोध ने जीवन की वृहत्काय संभावनाओं को जबरन काट-छांट कर बौना बना दिया है। यह समय बड़ा ही क्रूर और जटिल है, पत्थर की तरह सख्त और खुरदुरा। यह एक ऐसा बुलडोजर है जिसने समाज के भीतर की नैतिकता, ईमानदारी, कोमलता, सहिष्णुता और मैत्री-भाव को तोड़ फोड़ कर रख दिया है। लोगों ने अपनी सामाजिकता और सामूहिकता को बाजार में बेच दिया है। ये आत्मग्रस्त अवसरवादी सब तरफ से अपनी आंखें बंद किए साम्राज्यवाद और पूंजीवाद की संततियों के कब्जे में गाफिल हैं। 

कुछ समय पहले इतिहास की मौत, विचार और कविता (साहित्य) की मौत के जो फरमान आए थे, वास्तव में उन अमानवीय ताकतों का अभीष्ट हैं जो समस्त मानवता पर अपने दमन चक्र को कायम रखने के लिए विचार, इतिहास और साहित्य जैसे सांस्कृतिक क्षेत्रों को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानती हैं। ये अमानवीय ताकतें इस सच्चाई को जानती हैं कि साहित्य ही वह हथियार होगा जिनके प्रयोग से दुनिया को बदलने के लिये अपने घरों से निकल चुके ये आम लोग दुनिया का नेतृत्व हथिया लेगें। आज की कहानी ने ऐसी ताकतों का खुलासा किया है।

आज की कहानियों की एक खास बात यह है कि इनके अधिकांश चरित्र युवा हैं। इनमें दुनिया जहान की बातें होती रहती हैं- साहित्य के बारे में, उम्मीद जगाने वाली कविताओं के बारे में, राजनीति और संस्कृति के बारे में, माक्र्स, लेनिन, हिटलर और युद्धों के बारे में, ब्रेख्त, गोर्की, लोरका, नेरूदा के बारे में, सांप्रदायिक राष्ट्रवाद के बारे में, भूख बेकारी और कमीनेपन के बारे में। ये थकने और हार जाने के बाद भी आस्थावान हैं। उनके जीवन में दुद्र्धर्ष संघर्ष है, पद-पद पर पराजय भी है, हताश और टूटन भी है, फिर भी, परास्त होकर भी ये जीवन-संघर्ष में पुन: प्रस्तुत हो जाते हैं। जिस जन आंदोलन के ये चरित्र अगुवा हं', उसे अवरुद्ध करने के लिए तमाम दमन और षडयंत्र जारी हैं फिर भी ये रुकते नहीं हैं। 

आज की कहानियों में दलित, स्त्री और आदिवासी-जीवन-संदर्भों को लेकर अब एक अलग तरह की व्याख्या सामने आ रही है जिसे परंपरित पैमानों से नहीं समझा जा सकता। यहां केवल इतना ही कहना है कि तमाम वंचनाओं और लांछनाओं के बावजूद समाज के विकास की सतत प्रक्रिया और मुख्यधारा में दलित, स्त्री और आदिवासी की भागीदारी को नकारा नहीं जा सकता। वस्तुत: आज की अधिकांश कहानियां मनुष्यता को नकारने या खत्म करने वाली तमाम चेष्टाओं पर प्रहार करने वाली शक्ति के रूप में साकार होती हैं।

समकालीन कहानियां भाषा की कृत्रिमता, नीरसता और कलाबाजी के बावजूद उस यथार्थ को पकडऩे में सक्षम है जो इस जटिल समय की अनेक परतों के बीच दुबका रहता है। इन कहानियों की भाषा की एक खास बुनावट है जिसे कहानीकार खुद ही कालांतर में खोलते जाते हैं। इसलिए यह कहने में संदेह नहीं कि समकालीन जीवन-यथार्थ को ठीक-ठीक पहचानने और पाठकों के सामने ईमानदारी से रखने में- यानी उनकी संपूर्ण सृजनात्मकता को प्रकट करने में उनकी भाषा एक बड़ी शक्ति और औजार के रूप में विकसित हो रही है।

समकालीन कहानी का मुख्य स्वर जनवादी है। इसकी वास्तविक परख के लिए हमें कहानी के जनवादी और लोकवादी चरित्र को समझ कर 'कथा कहने की जनवादी-लोकवादी तमीज' सीखनी होगी। कहानी के रचाव की सारी संभावनाएं हमें व्यापक जन-जीवन और लोक प्रकृति में ही खोजनी होंगी। आज बड़े-बड़े कथाकार जीवन की वास्तविक परिधि से दूर छिटक रहे हैं। इनकी कहानी में जीवन की विविधता का संकोच है, गांव, किसान, कृषक मजदूर, खेती, बेरोजगारी और विस्थापित किसानों की आत्महत्याएं अभी तक नहीं हैं। तमाम सकारात्मक कोशिशों के बावजूद कहानीकार 'अनागत की आहटों की शिनाख्त' ठीक से कर पाने में चूक कर रहे हैं। इससे हिन्दी कहानी अपना स्पेस छोड़ती जा रही है। लेकिन फिर भी ऐसे संभावनाशील कहानीकार भी हैं जो समकालीन कहानी को भविष्य की अच्छी कहानी बनाने के लिए 'अपनी रचनात्मक' दोस्ती के साथ संघर्षरत हैं। उनके पास एक व्यापक सौन्दर्यबोध है, विचार और भावों की रागात्मक एकता है। संजीव, स्वयं प्रकाश, उदय प्रकाश, असगर वजाहत, विष्णु नागर, शंकर, ममता कालिया, योगेन्द्र आहूजा, शिवमूर्ति, संृजय, रमणिका गुप्ता, मैत्रेयी पुष्पा, अखिलेश, हरिचरन प्रकाश, अरुण प्रकाश, रघुनन्दन त्रिवेदी, शिवप्रसाद सिंह, संजय खाती, अजय नावरिया, महुआ माझी, जैसे अनेक कहानीकार आज लाखों दलित, दमित प्रताडि़त और अवहेलित जनों की जिजीविषा और संघर्ष से अपने लेखन को 'ऋण मुक्त करने की छटपटाहट' महसूस कर रहे हैं।

टिप्पणियाँ

  1. वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति
    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    http://saxenamadanmohan.blogspot.in/

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

साहित्य रचना: विचार और विचारधारा: लेखकीय प्रतिबद्धता के प्रश्न

महादेवी वर्मा की काव्यानुभूति का सच

जरूर लौटेगी गौरैया....