साहित्य रचना: विचार और विचारधारा: लेखकीय प्रतिबद्धता के प्रश्न
साहित्य में विचार और विचारधारा को लेकर लगभग पिछले
पन्द्रह दिनों से चली आ रही बहस के मद्देनजर इस विषय पर
एक सैद्धांतिक नोट. शायद रचनाकार साथियों के कुछ काम आ सके.
नंदकिशोर नीलम
''विचारधारा कलाकार के लिए
जीवन और जगत की व्याख्या का औजार है। विभिन्न विचारधाराओं के आधार पर दार्शनिक और साहित्यकार
जीवन और जगत की अलग-अलग व्याख्या करते हैं। लेखक इसमें नवीन अर्थ भरते हुए उसे नया
रूप और विकास प्रदान करता है। कोई सार्थक लेखन ऐसा नहीं होता जिसके पास जीवन और जगत्ï
की व्याख्या करने वाली
कोई सामाजिक कसौटी और विचारधारा न हो। हर साहित्य का अपना वैचारिक पक्ष होता है।”
रचनाकार का दृष्टिïकोण या विचारधारा उसकी सृजनेच्छा
और कल्पना में रमकर उसे दिशा प्रदान करती है। इससे उसका सर्जनात्मक विवेक परिष्कृत
होता है। विचारधारा-प्रेरित कल्पना और सृजनेच्छा विषयवस्तु के प्रत्यक्षीकरण में योग
देकर रचना के रूपाकारों में भी ढलती है। रचना का अभिव्यक्ति पक्ष भी उसकी विचारधारा
से निर्दिष्टï होता है।
(1) साहित्य-रचना: विचार और विचारधारा की भूमिका:-
साहित्य और विचारधारा का संबंध दूध और चीनी जैसा होता है जिसमें एक अनुपात की आवश्यकता
अनिवार्य होती है। साहित्य में विचारधारा का समावेश आरोपित और सतही न हो वह कृति में
इतना रम जाना चाहिए की कृति का विचार उसके मूल्यांकन का आधार बने। मुक्तिबोध ने साहित्य
में विचारधारा के उपयोग के लिए 'कामायनी’ का मूल्यांकन करते हुए कहा था-
''काव्य रचना जितनी उत्कृष्ट होती
है, उसकी प्रभाव
क्षमता भी उतनी ही अधिक होती है। इसलिए उस काव्य कृति में व्यक्त विचारधारा की प्रभावशक्ति
को ध्यान में रखते हुए उसका मूल्यांकन अवश्य किया जाना चाहिए, लेकिन विचारधारा के मूल्यांकन
को काव्यगुण के मूल्यांकन से अलग रखना चाहिए।”
साहित्य में विचारधारा एक
विचारदृष्टि के रूप में रहती है और कभी-कभी सृजन के स्तर पर वह भावबोध को
निर्धारित भी करती है। विचारधारा रचना में रचनाकार के दृष्टिकोण के रूप में अनिवार्य
रूप में रहती है। जो लोग साहित्य में विचारधारा के विनियोग की आलोचना करते हैं,
मजे की बात यह है कि
उनकी भी कोई न कोई विचारधारा अवश्य ही होती है।
रचनाकार का दृष्टिकोण या
विचारधारा उसकी सृजनेच्छा और कल्पना में रमकर उसे दिशा प्रदान करती है। इससे उसका सर्जनात्मक
विवेक परिष्कृत होता है। विचारधारा-प्रेरित कल्पना और सृजनेच्छा विषयवस्तु के प्रत्यक्षीकरण
में योग देकर रचना के रूपाकारों में भी ढलती है। रचना का अभिव्यक्ति पक्ष भी उसकी विचारधारा
से निर्दिष्ट होता है।
''विचारधारा साहित्य की श्रेष्ठता
की कसौटी है।” इससे
यह अर्थ नहीं लगाना चाहिए कि साहित्य-सृजन केवल विचारधारा से हो जाता है। किसी भी काल-विशेष
का कोई भी साहित्य हो वह कभी -भी विचारशून्य नहीं रहा। विचारों का व्यवस्थित और वैज्ञानिक
क्रम ही विचारधारा कहलाता है। साहित्य में विचार तो जरूरी है, लेकिन यह देखना भी जरूरी
है कि विचार शब्दों में आ रहे हैं या कृति में कार्य रूप में रमे हुए हैं। कोई भी विचार
बिना कार्यरूप ग्रहण किए समाज को प्रभावित नहीं कर सकता। साहित्य में भी विचार कार्यरूप
में आना चाहिए। 'प्रसिद्ध सोवियत कवि रसूल हमजातोव ने विचारों के विषय में कहा है- ''विचार वह पानी नहीं है,
जो शोर मचाता हुआ पत्थरों
पर दौड़ लगाता है, छींटे उड़ाता है, बल्कि वह पानी है, जो अदृश्य रूप से मिट्टी को नम करता है और पेड़-पौधों की जड़ों
को सींचता है। विचारधारा रचनाकार के विचारों और दृष्टियों का वह योग है जिससे लोगों
की भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक चेतना को तर्क पूर्ण आधार मिलता है।”
विचारधारा की प्रक्रिया में
सामाजिकता के सभी रूपों की सैद्धान्तिक और व्यवहारिक समझ निहित होती है। कलात्मक माध्यम
से व्यक्त विचारधारा पाठक की चेतना और अनुभूतियों को प्रभावित करती है। उद्देश्यहीन
कला या साहित्य का कोई अर्थ नहीं होता। जहां कला और साहित्य में उद्देश्य जुड़ जाता
है वहां विचारधारा का होना अवश्यम्भावी है। यथार्थवादी लेखक की स्वाभाविक प्रवृति ही
प्रगतिशील होती है। सामाजिक यथार्थ से संबंध रखने वाले लेखक समसामयिक समस्याओं,
घटनाओं आदि से गहराई
से जुड़े होते हैं। ऐसे लेखक न राजनीति से परहेज करते हैं न वर्ग-संघर्ष और ऐतिहासिक
भौतिकवाद से ही उन्हें चिढ़ होती है। बल्कि समकालीन आन्दोलनों और व्यावहारिक संघर्ष
के बीच ही उनका जीवन और कला अधिक परिपक्वता और श्रेष्ठता प्राप्त करती है। विचारधारा
लेखक की रचना को और निखार देती है।
''लेकिन केवल वैज्ञानिक विचारधारा
ही श्रेष्ठ साहित्य का आधार नहीं हो सकती, जब तक कलाकार में गहरी संवेदना न हो। साहित्य-सृजन की
प्रक्रिया केवल विचार तक सीमित नहीं। वह उससे ज्यादा गहरी, व्यापक और मानसिक है। जब तक लेखक
अपने स्वयं के जीवन-अनुभवों से उस दृष्टि का सामंजस्य स्थापित नहीं
करता तब तक श्रेष्ठ साहित्य की रचना संभव नहीं है। ...... यदि कुछ साहित्यकारों
ने यथार्थ के नाम पर कृत्रिमता का सृजन किया है, विचारधारा के नाम पर कलाहीन साहित्य
की रचना की है तो वह उन लेखकों की अपनी कमी हो सकती है। इसके लिए वैज्ञानिक विचारधारा
और मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र किसी भी रूप में उत्तरदायी नहीं है। कभी-कभी अतिशय
उत्साही साहित्यकार विचारधारा को साहित्य का पर्याय मान बैठते हैं। विचारधारा और साहित्य
के संबंधों को यांत्रिक रूप में प्रस्तुत करना अवैज्ञानिक और गैर-साहित्यिक है।”
(2) साहित्य और विचार या विचारधारा: लेखकीय प्रतिबद्घता का प्रश्र:-
'साहित्य और विचारधारा’ तथा 'प्रतिबद्घता’ दोनों
ही मार्क्सवादी कला-साहित्य-सौन्दर्य चिन्तन की अवधारणाएं है। अत: यह कहने में संकोच
नहीं है कि इन पर मार्क्सवादी नजरिए से विचार करना ही ज्यादा सार्थक होगा।
(क) विचारधारा
विश्व-चिन्तन में दो दार्शनिक
विचारधाराएं हमेशा विद्यमान रही है। चिन्तन की एक धारा अतिशय कल्पना मूलक धारा है जो
शासक वर्ग की हितैषी रही है इसलिए शासक वर्ग ने इसे हमेशा संरक्षण प्रदान कर इसे फलने
फूलने के सारे अवसर प्रदान किए हैं। यही कारण है कि यह विचारधारा अपेक्षाकृत व्यवस्थित
विचारधारा रही है। चिन्तन की दूसरी धारा रही है साक्ष्यमूलक या वस्तुवादी जो अपने अव्यवस्थित
किन्तु वैज्ञानिक स्वरूप के कारण दुनिया के मनुष्य के लिए, विशेषकर उस मनुष्य के लिए जो सत्ता
और पुरोहित वर्ग के षडय़न्त्रों से शोषित रहा है, अधिक श्रेयरुकर है। यही कारण है कि
यह वस्तुवादी विचारधारा आज दुनिया के सर्वाधिक वैज्ञानिक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित
है। इसे प्रतिष्ठा के इस शिखर तक पहुँचाने में कार्ल मार्क्स की भूमिका अप्रतिम है।
''उन्होंने
इस विचारधारा के माध्यम से सामाजिक मनुष्य और सामाजिक चेतना के सम्बन्धों के सामान्य
नियमों की खोज की। पूरे मनुष्य-समाज के निर्मांण, विकास, बौद्घिक-मानसिक क्षमताओं में वृद्घि
तथा मूल्यों के रचाव-बसाव की प्रक्रिया का अनुसंधान किया। इसी आधार पर मार्क्स ने जीवन
और जगत सम्बन्धी अनेक स्थापनाओं को निष्कर्ष रूप में प्रस्तुत किया।’’
जीवन और जगत सम्बन्धी मार्क्स
के अधिकांश निष्कर्ष तो बहुमान्य हैं किन्तु विचार और विचारधारा तथा प्रतिबद्घता सम्बन्धी
उनके निष्कर्षों ने भारी विवाद को जन्म दिया। मार्क्सवादी और गैर मार्क्सवादी,
दोनों ही प्रकार के
चिन्तकों ने इस विवाद को बढ़ाया है। अन्तत: यह विवाद इस प्रश्र पर आकर केन्द्रित हो
गया कि साहित्य में विचारधारा की प्रतिष्ठा हो या नहीं तथा सर्जक प्रतिबद्घ हो या नहीं?
गैर मार्क्सवादी चिन्तक यह
मानते हैं कि विचारधारा के दबाव में साहित्य की नैसर्गिकता प्रभावित होती है,
रचना-विधान से ध्यान
हट जाता है और कृति का कलात्मक सौन्दर्य नष्ट हो जाता है। वस्तुत: यह एक
छल है, भ्रम
है जो कलावादियों द्वारा विचारधारा का विरोध करने के लिए रचा गया है। ये लोग विचारधारा
को रचना के लिए घातक मानते हैं। इनके अनुसार विचारधारा रचना के भावबोध को कुण्ठित कर
देती है। रचना को स्वत:स्फूर्त मानने वाले ये चिन्तक घोषित करते हैं कि 'ए पोयम शुड नाट मीन,
बट बी।’
मार्क्सवादी रचनाकार विचारधारा
को दूसरी तरह से विवेचित करते हैं। इस सन्दर्भ में डॉ. जगदीश शर्मा का मत है कि- 'जब रचनाकार किसी विचारधारा
को आत्मसात कर लेता है तो वह उसकी कल्पना में रम कर उसे दिशा देती है। विचारधारा प्रेरित
कल्पना विषयवस्तु के प्रत्यक्षीकरण में योग देकर रचना के रूपाकारों में भी ढलती है,
रचना का अभिव्यक्ति
पक्ष भी उसकी विचारधारा से निर्दिष्ट होता है, लेकिन मात्र विचारधारा से वह निर्धारित
नहीं होता, और भी कितने ही तत्त्वों की भूमिका उसके स्वरूप-निर्धारण में रहती है। विचारधारा
उनमें से एक है।’’
साहित्य जीवन का पुन: सृजन
और सामाजिक यथार्थ की कलात्मक अभिव्यक्ति है। इसकी पृष्ठभूमि में विचारधारा की सक्रियता
और नैरन्तर्य अनिवार्य रूप से होता है। इसलिए साहित्य विचारधारा की पृष्ठभूमि में अनुभूत
सत्य से उपजता है। डॉ. नामवर सिंह ने इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए लिखा है- 'कविता (साहित्य) में विचारों
को सजीव चित्रों और प्रतिमाओं के रूप में व्यक्त होना चाहिए। लेकिन यह शक्ति कैसे आती
है? विचार जिस
प्रकार प्राप्त होता है, उसी प्रकार अभिव्यक्त भी होता है। यदि वह पुस्तकों से प्राप्त
होता है पुस्तकीय ढंग से प्रकट होता है। यदि वह जनारण्य से दूर एकान्त कमरे में आराम
कुर्सी के चिन्तन से प्राप्त होता है तो रचना में भी एकान्त और वैयक्तिक चिन्तन का
रूप लेता है, और यदि वह जीवन के संघर्षों में कुछ निछावर करने से प्राप्त होता है तो उसी गर्मी,
उसी ताजगी,
उसी सजीवता,
उसी सक्रियता तथा उसी
मूर्तिमत्ता के साथ रूपायित होता है। साहित्य में इसी रूपायन का महत्त्व है।’’
निष्कर्ष रूप से यह कहा जा
सकता है कि विचारधारा, विचारों और दृष्टिïयों का वह पूर्ण योग बन जाती है जिसमें लोगों की भौतिक
परिस्थितियों और सामाजिक चेतना को तर्कपूर्ण आकार मिलता है। विचारधारा की प्रक्रिया
में सामाजिकता के सभी रूपों की व्यवहारिक समझ निहित होती है। एक अन्तर्दृष्टि के रूप
में विचारधारा रचना की प्रामाणिकता में जो वृद्घि करती है उसका विवेचन इस दृष्टि से
अधिक संगत प्रतीत होता है कि इस प्रक्रिया में विचारधारा रचना की साहित्यिक सम्पन्नता
के घटकों की अंत: क्रिया के सन्दर्भ में विवेच्य होती है।
(ख) प्रतिबद्घता
'प्रतिबद्घता’ माक्र्सवादी कला-सौन्दर्य-साहित्य चिन्तन की वैचारिक आस्था से
जुड़ी हुई दूसरी महत्त्वपूर्ण अवधारणा है। प्रतिबद्घता रचनाकार के उस दायित्त्व को
रेखांकित करती है जो सृजन में अन्तर्भूत रहता है। इस आधार पर प्रतिबद्घता एक वर्गबद्घ
समाज में, साहित्य और कला की अपरिहार्य दायित्त्व-चेतना है।”
प्रतिबद्घता मार्क्सवादी
सोच का प्रतिफलन है इसलिए गैर मार्क्सवादियों ने इसे मार्क्सवादी साहित्य सृजन एवं
चिन्तन की एक सीमा मानकर इसका दुश्प्रचार किया। जबकि इस सम्बन्ध में मार्क्सवादियों
की मान्यता एकदम स्पष्ट है। वे मानते हैं कि-
'अब तक के समाज का सारा इतिहास
शोषक और शोषित वर्गों में बंटे हुए समाज का इतिहास रहा है और मार्क्सवाद सर्वहारा वर्ग
का क्रांति कारी दर्शन है इसलिए उसकी सम्पूर्ण और एकमात्र प्रतिबद्घता इसी सर्वहारा
वर्ग के हितों के लिए है। मनुष्यता का अधिकांश भाग सर्वहारा है और उसी के लिए यह दर्शन
संसार और समाज को बदलना चाहता है। कला, साहित्य, सौन्दर्य के लिए प्रतिबद्घता का अर्थ भी वर्गबद्घ समाज
में सर्र्वहारा के हितों के साथ उनकी प्रतिबद्घता से ही है।”
गैर मार्क्सवादी चिन्तक प्रतिबद्घता
के इस अर्थ को अस्वीकार करते हुए यह आरोप लगाते हैं कि प्रतिबद्घता के समर्थक सम्पूर्ण
मानवता को बांट कर देखते हैं जबकि साहित्य और कला मनुष्य मात्र के लिए है। इसलिए कलाकार
की प्रतिबद्घता तो सम्पूर्र्ण मानवता के लिए होनी चाहिए न कि केवल सर्वहारा वर्ग के
साथ। इन भाववादियों का यह निष्कर्ष सतही तौर पर बड़ा मनोरम एवं मनुष्यता हितैषी जान
पड़ता है पर यह एक बहुत बड़े छल के सिवाय कुछ भी नहीं है। इसकी सचाई बड़ी दारुण और
भीषण है। वर्गबद्घ समाज में शासक वर्ग की विचारधारा की केंद्रीय भूमिका होती है। प्रचार-प्रसार
के समस्त साधनों पर इसी वर्ग का अधिकार होता है। वह समस्त संसाधनों से, छल-छद्मों से अपनी विचारधारा
का घनघोर प्रचार-प्रसार करता है ताकि उसके वर्गहित और स्वार्थ को क्षति न हो। सर्वहारा
का अपना वर्गहित उसके सामने कभी सिर भी न उठा सके।
इनके द्वारा एक जुमला यह
और उछाला गया कि रचनाकार का किसी विचारधारा से जुडऩे या प्रतिबद्घ हो जाने से उसकी
'स्वतन्त्र-चेतना’ बाधित या प्रतिबन्धित हो जाती है। साहित्य और कला की सार्थकता
उसमें व्याप्त स्वतन्त्र चेतना से ही है। यदि प्रतिबद्घता प्रतिबन्ध है तो अप्रतिबद्घता
क्या है? कोई
अप्रतिबद्घ क्यों रहे? क्या खुद को अप्रतिबद्घ और स्वतन्त्र चेतना का वाहक घोषित करने
वाले लोग शोषक वर्ग की शोषक और आततायी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्घ नहीं हैं?
सच तो यह है कि सम्पूर्ण
मनुष्यता और स्वतंत्र चेतना की बात करने वाले ये लोग वास्तव में सर्वहारा वर्गहित से
हटकर उस वर्ग-हित की रक्षा करते हैं जो शोषण के लिए अन्तत: जिम्मेदार हैं- यानी शासक,
सामन्त और पुरोहित
वर्गहित के लिए ही ये प्रतिबद्घ होते हैं।
मार्क्सवादी चेतना समष्टिगत
मूल्यों की पक्षधर है। वह सर्वहारा और आमजन के प्रति प्रतिबद्घ है। इसी के विरोध में
गैर मार्क्सवादियों ने 'आत्मा की आवाज’ और 'स्वयं के लिए प्रतिबद्घ’ जैसी अति वैयक्तिक बातों का सहारा लिया। वस्तुत: यह उस चरम व्यक्तिवादी
सोच और स्वार्थ को जन्म देने वाला साबित हुआ जिसकी जड़ें अमरीका के नव कलावाद और नव
रूपवाद से पोषित हुई हैं। और हमारे देश पहले
अज्ञेय और अब उनके अनुयायी कर
रहे
'वर्गबद्घ मानवता के विरुद्घ
वर्गहीन मानवता; वर्ग विषमता के विरोध में मानव समता; शोषण, अनाचार, अन्याय और युद्घ के विरोध में शांति, बन्धुत्त्व, अन्तर्राष्ट्रीय भाईचारा,
श्रम की गरिमा,
विकास की समान सुविधाओं
के पक्ष में प्रतिबद्घता मार्क्सवादी चिन्तन की मांग है।‘ इसके विरोध में जो प्रतिबद्घता या पक्षधरता शोषक और शासक
वर्ग के साथ खड़ी है, उसका कोई मूल्य समकालीन चिन्तन और मनुष्यता के हित में नहीं हो सकता।
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